(कामरेड कविता कृष्णन ने यह लेख दिल्ली राज्य की पार्टी क्लास के लिए लिखा है ।आपके साथ साझा कर रहा हूँ )
आज हम कार्ल मार्क्स के व्यक्तित्व और उनके विशिष्ट विचारों को जानने का काम करेंगे। हम मार्क्सवाद की जानकारी लेंगे। मार्क्सवाद क्या है? कार्ल मार्क्स के क्रांतिकारी दर्शन को मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है। वे एक जर्मन दार्शनिक और क्रांतिकारी थे, जिनका जन्म 1818 में और म़़ृत्यु 1883 में हुई थी। उनके लेखन ने कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए वैचारिक आधार प्रदान किया।
मार्क्स महज एक किताबी दार्शनिक नहीं थे। उन्होंने अपने विचारों को स्वयं अपने जीवन में उतारा। अपने दौर के मजदूर आंदोलनों और क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ वे करीब से जुडे़ हुये थे। चूंकि शासक वर्गों को चुनौती देने वाले उनके विचार इतने असरदार और 'खतरनाक' थे, कि उन्हें कई देशों की सरकारों ने देश से निकाल दिया था और उनके लिखे लेखों व विचारों पर प्रतिबंन्ध लगा दिया था। उन्होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। कहा जाता है कि एक बार उनकी मां ने उनके बारे में कहा कि 'ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जिस आदमी ने पूंजी के बारे में इतना ज्यादा लिखा, वही पूंजी से लाभ उठाने में सबसे पीछे था'। मार्क्स और उनकी पत्नी के सात बच्चे हुये। जिनमें से तीन ही वयस्क होने तक जिन्दा रहे। अत्यधिक अभावों में जीवन गुजारने वाले मार्क्स के कई बच्चे छोटी उम्र में ही गुजर गये क्योंकि उनका इलाज कराना और डॉक्टर की फीस दे पाना उनके लिए सम्भव नहीं था। उनके दोस्त और साथी फ्रेडरिक ऐंगेल्स ने उनकी हर तरह से मदद की – वे उनके जीवन और उनके लेखन दोनों के ही हमसफर थे।
मार्क्स ने करीब डेढ़ सौ साल पहले जो लिखा था, आज 21वीं शताब्दी के भारत में वे कितने सार्थक हैं? बहुत से लोग घोषित कर रहे हैं कि मार्क्सवाद अब पुराना पड़ गया है, या उसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी, या कि वह पराजित हो चुका है! लेकिन आज हम सभी देख रहे हैं कि जैसे-जैसे पूंजीवाद का संकट गहराता जा रहा है, बड़े पूंजीवादी देशों में लोग सड़कों पर संघर्षों में सामने आ रहे हैं, और वे मार्क्स की लिखी बातों को जानने के लिए ज्यादा उत्सुक हैं। आइये, हम देखें कि मार्क्स का समाज के बारे में क्या कहना है, और यह हमारी दुनिया और हमारे संघर्षों को समझने में कितना मददगार है।
हमारा समाज
जब हम आस पास के समाज पर निगाह डालते हैं तो हमें गैर बराबरी और शोषण ही दिखाई पड़ता है : अमीर और गरीब के बीच, औरत और मर्द के बीच, ‘ऊपरी’ और ‘निचली’ जातियों के बीच । इस समाज में हमें जिंदा रहने के लिए होड़ करनी पड़ती है ।
अक्सर कहा जाता है कि ऐसा समाज ‘स्वाभाविक’ या ‘ईश्वर का बनाया हुआ’है । जब हम पूछते हैं कि ऐसा क्यों है कि जो लोग काम नहीं करते उनके पास तो अथाह संपत्ति है लेकिन जो लोग सबसे कठिन काम करते हैं वे सबसे गरीब हैं तो कहा जाता है कि भगवान की यही मर्जी है; या कि काम न करने वाले अधिक कुशल हैं या ज्यादा मेहनत करते हैं; या कि प्रकृति का नियम ही है कि कुछ लोग कमजोर और कुछ लोग बलवान हों । इसी तरह जब हम पूछते हैं कि हमारे समाज में औरतें मर्दों के अधीन क्यों हैं तो कहा जाता है कि इसका कारण औरतों का ‘प्राकृतिक रूप से’ कमजोर होना है; या कि उनके लिए बच्चों की देखभाल करना या घरेलू काम आदि करना ‘प्राकृतिक’ है ।
मार्क्सवाद हमें बताता है कि यह समाज ‘प्राकृतिक’ या शाश्वत/अपरिवर्तनीय नहीं है । हमेशा से समाज ऐसा नहीं रहा है और इसीलिए हमेशा ऐसा ही नहीं बना रहना चाहिए । समाज और सामाजिक संबंध लोगों द्वारा बनाए हुए हैं और अगर उन्हें लोगों ने बनाया है तो वे इसे बदल भी सकते हैं । इन्हें बदला कैसे जाए? अलग और बेहतर समाज कैसे बनेगा? कुछ लोग (मसलन अन्ना हजारे)कहेंगे कि अगर व्यक्ति कम भ्रष्ट, कम दुष्ट होने का फ़ैसला कर लें तो समाज में सुधार हो सकता है । लेकिन मार्क्सवाद कहता है कि निजी कोशिश ही काफ़ी नहीं है । तो समाज को कैसे बदलें?
पहले कदम के बतौर हमें समाज और सामाजिक संबंधों की प्रकृति को ठीक से समझना होगा । हमें मालिक और मजदूर, पुरुष और स्त्री के आपसी संबंधों को देखना सीखना होगा और इन संबंधों में ऊपर से स्पष्ट लगने वाली चीजों पर सवाल खड़ा करना होगा । समाज ने हमें इन संबंधों के बारे में जो कुछ सिखाया है उसे भुलाना होगा । ऐसे सभी संबंधों के मामले में हमें सतही सच्चाई से आगे बढ़कर गहराई में उतरना होगा ।
आज की क्लास में हम पूँजीपति और मजदूर के आपसी रिश्ते पर बात करेंगे । कोई एक पूँजीपति अच्छा है या बुरा; मजदूरी कम मिलती है या ज्यादा; इन बातों से अलग हम देखेंगे कि पूँजीपति और मजदूर के बीच क्या संबंध है ?
इस संबंध की सही प्रकृति समझना इसलिए कुछ मुश्किल हो जाता है कि सतही तौर पर मजदूर और पूँजीपति दोनों ही पूँजीवादी समाज में बराबर दिखाई पड़ते हैं । इसके बारे में सोचिए: सामंती समाज में सभी जानते कि राजा और उनके रजवाड़ों के हाथ में सारी शक्ति है; किसान और कारीगर अच्छी तरह से जानते थे कि वे पराधीन हैं । दास समाज में गुलाम अच्छी तरह से जानते थे कि उनका मालिक ही उनका स्वामी है । लेकिन आधुनिक पूँजीवादी समाज में कानून की नजर में सबके अधिकार समान हैं । सबको मतदान का समान अधिकार है । मजदूर किसी एक ही मालिक की सेवा करने के लिए मजबूर नहीं है- उसे किसी भी पूँजीपति को अपना श्रम बेचने की आजादी है ।
सबसे आगे बढ़कर पूँजीवादी समाज में लोगों के बीच के सामाजिक संबंध वस्तुओं के बीच सामाजिक संबंध के परदे में छुपे रहते हैं । उदाहरण के लिए ऐसा लगता है कि ‘काम’ ऐसी वस्तु है जिसकी अदला बदली एक दूसरी‘वस्तु’- पैसा से की जा रही है । काम के बदले दाम सही अदला बदली लगती है अगर ‘दाम’, या मजदूरी ठीक ठाक हो ।
काम के बदले दाम
बाजार में धन्नासेठ और मजदूर बराबर के हकदार की तरह मिलते हैं: उनमें से एक खरीदार और दूसरा माल अर्थात श्रम शक्ति को बेचने वाले की तरह होते हैं । बाजार में बेचने वाल पूरी आजादी के साथ अपनी श्रम शक्ति बेचता है; खरीदार पैसा देता है और उस श्रम शक्ति के उपयोग का हक हासिल कर लेता है । ऊपरी तौर पर यानी बाजार के स्तर पर यह अदलाबदली जायज है ।
लेकिन अगर हम बाजार के स्तर को छोड़कर गहराई में उतरें और वहाँ पहुँचें जहाँ उत्पादन होता है और मुनाफ़ा पैदा होता है तो दूसरी सच्चाई नजर आती है । आइए मार्क्स के ही शब्दों में इसे समझें:
“इसलिए हम श्रीयुत धन्नासेठ और श्रम शक्ति के मालिक को अपने साथ लेकर शोर शराबे से भरे इस क्षेत्र से, जहाँ हर चीज खुलेआम और सब लोगों की आँखों के सामने होती है, कुछ समय के लिए विदा लेते हैं और उन दोनों के पीछे पीछे उत्पादन के उस गुप्त प्रदेश में चलते हैं, जिसके प्रवेश द्वार पर ही हमें यह लिखा दिखाई देता है: “काम काज के बिना अंदर आना मना है” । यहाँ पर हम न सिर्फ़ यह देखेंगे कि पूँजी किस तरह उत्पादन करती है, बल्कि हम यह भी देखेंगे कि पूँजी का किस तरह उत्पादन किया जाता है । यहाँ आखिर हम मुनाफ़ा कमाने के भेद का पता लगाकर ही छोड़ेंगे ।
जिस क्षेत्र से हम विदा ले रहे हैं, यानी वह क्षेत्र, जिसकी सीमाओं के भीतर श्रम शक्ति का विक्रय और क्रय चलता रहता है, वह सचमुच मनुष्य के मूलभूत अधिकारों का स्वर्ग है । केवल यहीं पर स्वतंत्रता, समानता, संपत्ति और(स्वार्थ) का राज है ।(पूँजी,खंड1,भाग2, अध्याय6)
स्वतंत्रता का राज इसलिए कि मजदूर जिसे चाहे उसे अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए ‘स्वतंत्र’ है । वह बंधुआ मजदूर या भूदास की तरह नहीं होता जो एक खास जमींदार या मालिक की चाकरी के लिए बाध्य होता है । और इसलिए कि पूँजीपति उसकी श्रम शक्ति खरीदने के लिए ‘स्वतंत्र’ होता है ।
समानता का राज इसलिए कि यहाँ हरेक किसी माल का मालिक होता है जिसकी खरीद बिक्री साफ और ‘समान’ ढंग से होती है ।
संपत्ति का राज इसलिए कि हरेक केवल वही चीज बेचता है, जो उसकी अपनी चीज होती है । एक के पास श्रम शक्ति होती है, दूसरे के पास पूँजी होती है;श्रम शक्ति का एक हिस्सा पूँजी के एक हिस्से (अर्थात मजदूरी) से खरीदा जाता है ।
और यहाँ हरेक स्वार्थ से ही संचालित होता है । (यहाँ मार्क्स 19वीं सदी के दार्शनिक बेंथम का नाम लेते हैं जो कहते थे कि हरेक मनुष्य स्वार्थी होता है और स्वार्थ के हिसाब से ही काम करता है और अगर सभी लोग इसी तरह काम करें तो समूचे समाज का कल्याण पूरा हो जाएगा ।)
यदि श्रम और मजदूरी की बीच हुआ यह लेन-देन बिल्कुल बराबरी पर हुआ है, तो इसमें से मुनाफा फिर कहां से आया? इस पहेली को सुलझाने के लिए हमें उस पर्दे के पीछे झांक कर देखना होगा जिस पर लिखा है कि “काम काज के बिना अंदर आना मना है”।
“वह जो पहले पैसे का मालिक था अब पूँजीपति के रूप में अकड़ता हुआ आगे आगे चल रहा है; श्रम शक्ति का मालिक उसके मजदूर के रूप में उसके पीछे जा रहा है । एक अपनी शान दिखाता हुआ, दाँत निकाले हुए, ऐसे चल रहा है जैसे आज व्यापार करने पर तुला हुआ हो; दूसरा दबा दबा, हिचकिचाता हुआ जा रहा है, जैसे खुद अपनी खाल बेचने के लिए मंडी में आया हुआ हो और जैसे उसे सिवाय इसके कोई उम्मीद न हो कि अब उसकी खाल उधेड़ी जाएगी ।”( पूँजी,खंड 1, भाग 2, अध्याय 6)
श्रम नहीं, तो मुनाफ़ा नहीं
जैसा कि ऊपर के कार्टून में आपने देखा कि मजदूर के बिना पूँजीपति को मुनाफ़ा नहीं हो सकता । श्रम के बगैर पूँजी का निर्माण नहीं हो सकता । श्रम से ही अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है । इसका मतलब यह कि मजदूर को जितनी मजदूरी दी जाती है उससे अधिक वह हमेशा ही पैदा करता है । जिसकी मजदूरी नहीं दी जाती उसी मेहनत के उत्पादन को हड़प लेना पूँजीवादी शोषण का सार है । मजदूर को चाहे जितनी अधिक मजदूरी मिले उसका यह शोषण होता ही है ।
आइए, इसे और अच्छी तरह से समझते हैं ।
श्रम शक्ति का मूल्य क्या है? इसे वह राशि समझिए जो मजदूर को बनाए रखने के लिए जरूरी होती है । दूसरे दिन भी काम पर लौट कर आने के लिए मजदूर(नी) को आराम, भोजन, घर, ईंधन आदि की जरूरत होती है । जब मजदूर मर जाए तो उसकी जगह लेने के लिए मजदूरों की अगली पीढ़ी को पैदा और बड़ा होना होता है । इसलिए श्रम शक्ति का मूल्य वही होता है जो इन जरूरतों को पूरा करे । समाज के विकास और वर्ग संघर्ष के स्तर के अनुसार इन जरूरी चीजों में फ़र्क हो सकता है । अमेरिका या ब्रिटेन में मजदूरी भारत से ज्यादा हो सकती है । कभी कभी यह मजदूरी मजदूर और उसके परिवार के भरण पोषण के लिए जरूरी न्यूनतम राशि से भी कम हो जा सकती है । लेकिन श्रम शक्ति का मूल्य हमेशा वही रहेगा जो मजदूर और उसके परिवार के भरण पोषण के लिए जरूरी हो । लेकिन मजदूर हमेशा ही उसके भरण पोषण के लिए जितना जरूरी होता है उससे ज्यादा पैदा करता है ।
किसी एक कार्यदिवस में उसके एक हिस्से में की गई मेहनत से ही मजदूर के भरण पोषण की लागत निकल आती है । बाकी समय में की गई मेहनत की मजदूरी नहीं मिलती । इसी अतिरिक्त मेहनत से होने वाला उत्पादन मुफ़्त होता है और पूँजीपति के मुनाफ़े का यही राज़ है ।
पूँजीपति हमेशा ही इस मुफ़्त के काम को बढ़ाना चाहता है । किन तरीकों से ऐसा होता है?
- मजदूर और उसके परिवार के भरण पोषण की लागत को कम करके
- पारिवारिक व्यवस्था के जरिए जिसमें भरण पोषण की जिम्मेदारी को औरतें मुफ़्त निभाती हैं (अर्थात घर का काम, बच्चों और बूढ़ों/बीमारों की देखभाल पूँजी की सेवा में मुफ़्त किया गया काम है)
- कार्यदिवस को यथासंभव लंबा करके, या उतने ही घण्टों में खाने आदि का समय घटा कर और मजदूरों से ज्यादा काम करवा कर।
इसी तरह मजदूर भी इस मुफ़्त काम की अवधि को कम करने के लिए लड़ाई लड़ते हैं:
- अधिक मजदूरी की माँग करके; यह कहकर कि शिक्षा, भोजन, ईंधन,स्वास्थ्य, परिवहन, टीए/डीए, पेंशन आदि ‘जरुरी’ चीजों में शामिल हैं(मालिक इन सबके लिए मजदूरी में भुगतान नहीं करता: इनका भुगतान समूचे शासक वर्ग यानी सरकार द्वारा हो सकता है ।) इसीलिए गरीबी की रेखा को नीचे रखने के खिलाफ़ लड़ाई होती है; न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने और उसे हासिल करने के वास्ते संघर्ष होता है;कार्यदिवस/सप्ताह/माह/जीवन को घटाने की माँग होती है; राशन, शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार का दावा किया जाता है । ये सभी संघर्ष मुफ़्त काम की सीमा कम करने के संघर्ष का हिस्सा हैं ।
पूंजीपतियों, या मजदूरों द्वारा किये जाने वाले ये सारे कार्यकलाप हम अपने जीवन में रोज देखते हैं। हर मजदूर पूंजीपतियों की चालबाजियों को भली-भांति समझ लेते हैं और बेहतर मजदूरी, काम की परिस्थितियों में सुधार व अपने जीवन के लिये संघर्ष करना भी वे जानते हैं। मार्क्स ने हमें बताया कि रोजमर्रा चलते रहने वाले इस संघर्ष की वास्तविक वजह क्या है और कैसे उस बुनियाद को ही बदल कर एक नये समाज की नींव रखी जा सकती है। अपने शरीर के बारे में हम अच्छी तरह से जानते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि इसके अंदर के अंग कैसे काम करते हैं। जैसे शरीर को जानने के लिए डॉक्टर उसकी चीर फाड़ करते है, उसी तरह से मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था की चीरफाड़ कर उसके भीतर की सच्चाई और कार्यप्रणाली का खुलासा हमारे सामने कर दिया।
सर्वहारा और उजरती गुलामी
आप पूछ सकते हैं कि मजदूर को ऊपर बताये शोषण का शिकार क्यों बनना पड़ता है? इसका कारण मार्क्स बताते हैं कि – पूंजीपति (और जमीन्दार) उत्पादन के सभी साधनों (अर्थात् आजीविका के सभी साधन जैसे जमीन, फैक्ट्री आदि) के मालिक होते हैं, और मजदूरों के पास केवल उनका श्रम होता है जिसे वे बेचते हैं।
हमने ऊपर देखा कि पूंजीवादी समाज में मजदूर 'आजाद' होता है, वह बन्धुआ मजदूर या गुलाम नहीं होता। लेकिन मजदूर को आजाद बताने के कई और मायने भी हैं। उत्पादन के सभी तरह से साधनों से रहित (आजाद) मजदूरों को पूंजीवाद कैसे बनाता है – जिनके पास कोई सम्पत्ति, जमीन या उत्पादन के औजार नहीं होते ? ये मजदूर तो काम पाने के लिए, और अपना जीवन चलाने के लिए, पूरी तरह से पूंजीपतियों की कृपा पर निर्भर हैं। किसानों से उनकी जमीन छीन कर और मजदूरों से उनके औजार और मशीनें छीन कर ही पूंजीवाद ऐसा करता है। इसकी प्रक्रिया में एक सम्पूर्ण सर्वहारा मजदूर की रचना पूंजीवाद करता है, जिससे श्रम के अलावा और सभी कुछ छीन लिया जाता है। अपनी जमीन होने पर किसान उस पर फसल उगा कर और औजार होने पर एक कारीगर, उदाहरण के लिए एक मोची अपने औजारों से जूते बना कर, उन्हें बाजार में बेच सकता है। जब जमीन या औजार उनसे छिन जाते हैं तो उनके द्वारा बनायी गयी वस्तु उन्ही के नियंत्रण में नहीं रहती है। मजदूर जो भी उत्पादन करता है उस पर पूंजीपति या जमीन्दार का नियन्त्रण हो जाता है। मजदूर खुद जो बनाता है वही वस्तु उसके सामने एक बाहरी शक्ति – यानि पूंजी - के रूप में खड़ी हो जाती है।
मार्क्स बताते हैं कि कैसे किसान ''अचानक उनके आजीविका के साधन – जमीन- से बल पूर्वक दूर कर दिये जाते हैं'' और उन्हें ''मुक्त (आजाद) सर्वहारा बना कर श्रम की मण्डी में पटक दिया जाता है।'' व़े लिखते हैं कि आजीविका से साधनों पर जबरिया कब्जा ''मानवता के इतिहास में खून और आग की स्याही से दर्ज है'' (पूंजी, भाग 1, अध्याय 26)। भारत में आज हम इसी परिघटना के गवाह बन रहे हैं। उदाहरण के लिए किसानों से बन्दूक की नोंक पर जमीनें छीनी जा रही है। इसी तरह का एक और उदारहरण हम दिल्ली में भी देख रहे हैं जहां स्ट्रीट वेण्डरों (रेहड़ी, खोखा, पटरी वालों) के पास अब भी उत्पादन के कुछ औजार और उन्हें चलाने की कुशलता है। जैसे कि उनकी ठेली, या सिलाई की मशीन, या जूता बनाने वाले औजार वगैरह। खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट कम्पनियों के लिए रास्ता साफ करने के लिए इन वेण्डरों को बेदखल किया जा रहा है। यदि खोखा-पटरी वाले बेदखल हो जाते हैं तो उनके पास मौजूद स्वावलम्बी रूप से आजीविका चलाने के छोटे-मोटे साधन भी समाप्त हो जायेंगे। फिर अपनी आजीविका के लिए मजदूरी करना ही उनके पास रास्ता बचेगा – शायद वालमार्ट, या रिलायंस, जैसी किसी कम्पनी में वे सिक्योरिटी गार्ड या कम दिहाड़ी की कोई नौकरी करने के लिए वे बाध्य होंगे!
अब हम समझ सकते हैं कि "आजाद" मजदूर असल में उतने आजाद नहीं हैं जितना कि उन्हें बताया जाता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि उनकी बेड़िया साफ तौर पर दिखायी नहीं देती हैं। पेट की भूख के आगे उनकी आजादी का कोई अर्थ रह नहीं रह जाता। चूंकि पूंजीपति या जमीन्दार सभी तरह के रोजगार को नियंत्रित करते हैं, इसलिये मजूदूरों को उनके लिए ही काम करना होग, वरना वे अपना जीवन नहीं चला पायेंगे। वे भले ही गुलाम नहीं है, वे हर हाल में उजरती गुलाम हैं। जैसा कि मार्क्स ने कहा था – "रोम के गुलाम बेड़ियों में जकड़े जाते थे, उजरती गुलाम अपने मालिक के साथ अदृश्य धागों से बंधा है। लगातार मालिक बदलते रहने से और रोजगार के अनुबंध के कानूनी दिखावे के कारण सिर्फ लगता भर है कि मजदूर आजाद हैं" (पूंजी, भाग 1, अध्याय 23)।
कार्यदिवस और काम के हालात
एक उपभोक्ता वस्तु के रूप में श्रम शक्ति मजदूरों द्वारा उत्पादित वस्तुओं (जिन्हें बाजार में खरीदा व बेचा जा सकता है) से काफी भिन्न तरह की होती है। श्रम शक्ति ही केवल एक ऐसी वस्तु है जो स्वयं मजदूर के शरीर में होती है। अर्थात् मजदूर से इसको अलग नहीं किया जा सकता। इसका मतलब हो जाता है कि एक आजाद मजदूर अपनी श्रम शक्ति को एक सीमित समय – उदाहरण के लिए 10 धण्टों, या 8 धण्टे – के लिए पूंजीपति को बेचता है, व़ह पुराने समय के गुलामों की तरह जिनका शरीर व आत्मा भी मालिक की होती थी, अपने को नहीं बेचता। लेकिन वास्तविकता में उन 10 या 8 घण्टों के लिए मजदूर के शरीर पर पूंजीपति का ही नियंत्रण होता है। एक उपभोक्ता वस्तु के रूप में श्रम शक्ति का इस्तेमाल होने के क्रम में मजदूर के शरीर में क्षरण होता है। यह मजदूर ही है जो अपने शरीर के साथ किसी खदान या गटर में घुसता है, या उूंची बिल्डिंग बनाने के लिए बल्लियों पर चढ़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि मजदूरी कितनी ज्यादा है, शरीर में जो क्षरण होता है, उसकी जान और अंगों पर जो खतरा आता है, उसका पूरा "दाम" उसे कभी नहीं मिल सकता।
काम के उन घण्टों के अलावा भी मजदूरों का जीवन पूंजीपतियों के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। क्योंकि जैसा कि हमने देखा है, मजदूरों का घर-परिवार मात्र एक निजी मामला नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जगह है जहां श्रम शक्ति की रोज भरपाई होती है, जहां मजदूरों की नयी पीढ़ी पुर्नरूत्पादित होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूंजीपतियों के लिए मजदूर एक मशीन की ही तरह हैं, और वे मजदूरों के उसी तरह मालिक होते हैं जिस तरह एक मशीन के। जैसे मशीन की सफाई और ऑइलिंग की जाती है उसी तरह मजदूर भोजन करते हैं, चाहे घर में खाना खायें या कार्यस्थल पर। मजदूरों के निजी जीवन के अन्य पहलुओं की तरह उनका भोजन भी पूंजीवाद के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। और पूंजीवाद इस बात की भी गारंटी करता है कि इस भोजन के लिए मजदूर पूरी तरह पूंजीपतियों पर निर्भर रहें। कैसे? क्योंकि मजदूर जो भी उत्पादन करते हैं, उनके श्रम का फल उनके हाथों से छीन कर पूंजीपतियों के स्वामित्व और नियंत्रण में दे दिया जाता है।
इसलिए मजदूर को जिन्दा रहने के लिए अनिवार्य रूप से काम करना होगा। लेकिन उस मेहनत से वह जिन्दा रहने से अधिक और कुछ नहीं कर सकता। और पूंजीपतियों के लिए मुनाफे की गारंटी करके उनका ही श्रम, मजदूर वर्ग पर पूंजीपतियों के नियन्त्रण की व्यवस्था को बनाये भी रखता है!
मार्क्स ने बताया है कि कानून के जरिए काम के घंटे तय कर दिए जाने के बावजूद पूँजीपति मजदूर के समय में ‘छोटी छोटी चोरी’ करना जारी रखते हैं ।
पूँजी के अध्याय 10 में बताया गया है कि “पूँजी द्वारा मजदूर के खाना खाने या मनोरंजन के समय में ये ‘छोटी छोटी चोरियाँ’” या “समय की ‘छोटी पॉकेटमारी’ या ‘मिनट भर की कटौती’ या जिसे मजदूर ‘खाना खाने के समय काट-कुतर कर घटाना’ कहते हैं, होती रहती हैं ।” ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पूँजीपति के लिए “पल पल मिलाकर ही मुनाफ़े का घड़ा भरता है ।” पाली(शिफ़्ट) की व्यवस्था से रात को भी काम के दिन में बदल दिया जाता है ।
“साफ़ है कि जीवन भर मजदूर मूर्तिमान श्रम शक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता ।--- शिक्षा के लिए, बौद्धिक विकास के लिए, सामाजिक कार्यों तथा सामाजिक आदान प्रदान के लिए, उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के स्वच्छंद विकास के लिए या यहाँ तक कि रविवार को विश्राम करने के लिए-सब खयाली पुलाव है ! यह शरीर की वृद्धि, विकास और समुचित संपोषण के लिए आवश्यक समय को भी हड़प लेती है । ताजा हवा और सूरज की धूप का सेवन करने के लिए जो समय चाहिए, वह उसे भी चुरा लेती है । वह भोजन के समय को लेकर हुज्जत करती है और जहाँ मुमकिन होता है, इस समय को भी उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल कर लेती है, जिससे मजदूर को काम के दौरान उत्पादन के किसी साधन की तरह ही भोजन दिया जाता है, जैसे बायलर को कोयला और मशीन को ग्रीज और तेल दिया जाता है ृ---”।
जो मजदूर बाजार में ‘आजाद’ दिखाई पड़ रहा था उसे उत्पादन की प्रक्रिया में पता चलता है कि वह आजाद नहीं है। “जब तक शोषण के लिए एक भी मांस पेशी, एक भी स्नायु, रक्त की एक भी बूँद उसके शरीर में बाकी है”, तब तक पूँजी रूपी डायन उसे अपने पंजों से मुक्त नहीं होने देगी ।’
मजदूर औजार या मशीन का इस्तेमाल नहीं करता, मशीन ही मजदूरों का इस्तेमाल करती है । मजदूर मशीन का पुछल्ला बन जाते हैं, पहिए के दाँता बन जाते हैं । उनकी (बुनाई, जूता बनाने की) कुशलता नष्ट हो जाती है, वे "मशीन को चलाने वाला औजार" बन कर बार बार एक ही काम करते हैं । इससे उनका दिमाग विकलांग हो जाता है और उनका साहस भ्रष्ट हो जाता है ।
क्रांति की ओर
लेकिन इसी के साथ पूँजीवाद एक नई संभावना को भी जन्म देता है । पूँजीवाद को जरूरत होती है कि मजदूर इकट्ठा काम करें । उदाहरण के लिए मारुति या प्रिकाल जैसी फ़ैक्टरी में सैकड़ों मजदूर एक साथ काम करते हैं । और वहाँ मजदूर सामूहिक रूप से अपनी ताकत को महसूस कर सकते हैं । इस बात को समझ सकते हैं कि सिर्फ़ सामूहिक संघर्ष के जरिए ही वे अपना खून पीने वाली डायन की कोशिशों पर अवरोध लगा सकते हैं । और वर्ग चेतना तथा वर्ग संघर्ष के जन्म के साथ वर्तमान शोषक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और एक नए समाज के निर्माण की संभावना पैदा होती है । यानी क्रांति की संभावना का जन्म होता है ।
पूँजीवाद में एक अंतर्विरोध होता है – इसमें उत्पादन तो सामूहिक होता है लेकिन उस उत्पादन के फलों को निजी रूप से हड़प लिया जाता है । मजदूर सामूहिक रूप से क्रांति के जरिए और एक वर्ग के बतौर, उत्पादन के साधनों और अपने श्रम के उत्पाद का सामूहिक ऱूप से मालिक बन सकते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि पूंजीवाद उन्ही सामाजिक शक्तियों को जन्म देने और आगे बढ़ाने के लिए बाध्य है जो आगे चल कर उसे ही नष्ट करेंगीं। अर्थात उस मजदूर वर्ग को जो अपने श्रम का मालिक है और "खोने के लिए जिसके पास अपनी बेड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं है"। जैसा कि मार्क्स और ऐंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट घोषणापत्र में बताया गया है कि पूंजीपति वर्ग अपनी कब्र खोदने वालों, अर्थात् मजदूर वर्ग, को खुद ही पैदा करता है।
बहरहाल यह क्रांति हीरो लोगों के करने से नहीं होगी । अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों में मजदूर हीरो होता था । और वह शोषण के खिलाफ़ लड़ता था । लेकिन सारे मामले का निपटारा किसी धनवान लड़की से मजदूर हीरो की शादी या शोषक की हत्या/पराजय; अथवा यह पता लगने से हो जाता था कि असल में हीरो किसी भले और धनी पूँजीपति का बेटा है । वास्तविक दुनिया में कोई अकेला हीरो परिवर्तन या क्रांति नहीं कर सकता । इसके लिए एक पार्टी की जरूरत पड़ती है जिसके हित मजदूर वर्ग के ही हित हों- अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत होती है ।
जब हम खुद को ट्रेड यूनियनों में संगठित करते हैं और मजदूरी बढ़ाने या बेहतर काम की परिस्थितियों के लिए संघर्ष करते हैं तब हमें याद रखना होगा कि केवल ट्रेड यूनियन का संघर्ष करने भर से क्रांति हो पाना असंभव है। अपने रोजमर्रा के इन संघर्षों को करने के साथ ही हमारी दृष्टि अपने अंतिम लक्ष्य क्रांति पर हमेशा टिकी रहनी चाहिए। क्रांति का मतलब है कि उत्पादन के साधनों का नियंत्रण पूंजीपति वर्ग से छीन कर उन पर मजदूर वर्ग का नियंत्रण स्थापित किया जाय। जब मजदूरों के पास उत्पादन के साधनों का नियंत्रण आ जायेगा, तब वे एक नये समाज को बनाने के लिए आगे बढ़ेंगे। इसके बाद वे डायन की मुनाफ़े की प्यास के लिए असीमित समय तक काम करने के लिए मजबूर नहीं होंगे । बजाय इसके, काम होगा समाज की जरूरतों के लिहाज से;जो काम करते हैं लेकिन संपत्तिहीन हैं तथा जो काम नहीं करके भी सारी संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं, उनके बीच समाज विभाजित नहीं रह जाएगा;और सभी मनुष्यों के पास मनुष्य की तरह बौद्धिक, शारीरिक संभावनाओं को विकसित करने का समय, अवकाश और साधन होगा। जैसा कि एक गीत में बताया गया है "जब मेहनतकश इस दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे, तब एक खेत नहीं, एक देश नहीं, पूरी दुनियां मांगेंगे"।
यह क्रांति दीर्घकालीन संघर्ष के बगैर नहीं हो सकती । यह संघर्ष महज मजदूरी या आर्थिक मुद्दों पर नहीं होता । बजाय इसके मजदूरों और कम्युनिस्ट पार्टी को हरेक किस्म के शोषण और अन्याय के खिलाफ़ लड़ना होगा । उन्हें लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ना होगा- क्योंकि इन अधिकारों से उनके क्रांतिकारी संघर्ष को ताकत मिलती है । हमने देखा ही कि वे राशन के लिए,शिक्षा और स्वास्थ्य के हक के लिए लड़ते हैं । मजदूर वर्गीय चेतना का मतलब है कि वे पुरुष या ऊँची जातियों की श्रेष्ठता में यकीन नहीं करते । उन्हें समाज और अपने घर में महिलाओं की संपूर्ण समानता और मुक्ति के लिए लड़ना होगा । कम्युनिस्टों की कोई जाति नहीं होती और वे जातिवाद तथा सभी तरह के जातीय उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ते हैं ।
आइये, आज के अपने पाठ को कम्युनिस्ट घोषणापत्र की इन पंक्तियों के साथ समाप्त करें-
"कम्युनिस्ट अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वे खुलेआम ऐलान करते हैं कि उनके लक्ष्य पूरी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बलपूर्वक उलटने से ही पूरे किये जा सकते हैं। कम्युनिस्ट क्रांति के भय से शासक वर्ग कांपा करें। सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए सारी दुनिया है। दुनियां के मजदूरो एक हो !"
http://gopalpradhan.blogspot.com बाट साभार
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