Tuesday, March 29, 2016

मार्क्सवाद का सरल परिचय



(कामरेड कविता कृष्णन ने यह लेख दिल्ली राज्य की पार्टी क्लास के लिए लिखा है ।आपके साथ साझा कर रहा हूँ )

आज हम कार्ल मार्क्‍स के व्‍यक्तित्‍व और उनके विशिष्‍ट विचारों को जानने का काम करेंगे। हम मार्क्‍सवाद की जानकारी लेंगे। मार्क्‍सवाद क्‍या है? कार्ल मार्क्‍स के क्रांतिकारी दर्शन को मार्क्‍सवाद के नाम से जाना जाता है। वे एक जर्मन दार्शनिक और क्रांतिकारी थे, जिनका जन्‍म 1818 में और म़़ृत्‍यु 1883 में हुई थी। उनके लेखन ने कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के लिए वैचारिक आधार प्रदान किया।

मार्क्‍स महज एक किताबी दार्शनिक नहीं थे। उन्‍होंने अपने विचारों को स्‍वयं अपने जीवन में उतारा। अपने दौर के मजदूर आंदोलनों और क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ वे करीब से जुडे़ हुये थे। चूंकि शासक वर्गों को चुनौती देने वाले उनके विचार इतने असरदार और 'खतरनाक' थे, कि उन्‍हें कई देशों की सरकारों ने देश से निकाल दिया था और उनके लिखे लेखों व विचारों पर प्रतिबंन्‍ध लगा दिया था। उन्‍होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। कहा जाता है कि एक बार उनकी मां ने उनके बारे में कहा कि 'ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जिस आदमी ने पूंजी के बारे में इतना ज्‍यादा लिखा, वही पूंजी से लाभ उठाने में सबसे पीछे था'। मार्क्‍स और उनकी पत्‍नी के सात बच्‍चे हुये। जिनमें से तीन ही वयस्‍क होने तक जिन्‍दा रहे। अत्‍यधिक अभावों में जीवन गुजारने वाले मार्क्‍स के कई बच्‍चे छोटी उम्र में ही गुजर गये क्‍योंकि उनका इलाज कराना और डॉक्‍टर की फीस दे पाना उनके लिए सम्‍भव नहीं था। उनके दोस्‍त और साथी फ्रेडरिक ऐंगेल्‍स ने उनकी हर तरह से मदद की – वे उनके जीवन और उनके लेखन दोनों के ही हमसफर थे।

मार्क्‍स ने करीब डेढ़ सौ साल पहले जो लिखा था, आज 21वीं शताब्‍दी के भारत में वे कितने सार्थक हैं? बहुत से लोग घोषित कर रहे हैं कि मार्क्‍सवाद अब पुराना पड़ गया है, या उसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी, या कि वह पराजित हो चुका है! लेकिन आज हम सभी देख रहे हैं‍ कि जैसे-जैसे पूंजीवाद का संकट गहराता जा रहा है, बड़े पूंजीवादी देशों में लोग सड़कों पर संघर्षों में सामने आ रहे हैं, और वे मार्क्‍स की लिखी बातों को जानने के लिए ज्‍यादा उत्‍सुक हैं। आइये, हम देखें कि मार्क्‍स का समाज के बारे में क्‍या कहना है, और यह हमारी दुनिया और हमारे संघर्षों को समझने में कितना मददगार है।

हमारा समाज

जब हम आस पास के समाज पर निगाह डालते हैं तो हमें गैर बराबरी और शोषण ही दिखाई पड़ता है : अमीर और गरीब के बीच, औरत और मर्द के बीच, ‘ऊपरी’ और ‘निचली’ जातियों के बीच । इस समाज में हमें जिंदा रहने के लिए होड़ करनी पड़ती है ।

अक्सर कहा जाता है कि ऐसा समाज ‘स्वाभाविक’ या ‘ईश्वर का बनाया हुआ’है । जब हम पूछते हैं कि ऐसा क्यों है कि जो लोग काम नहीं करते उनके पास तो अथाह संपत्ति है लेकिन जो लोग सबसे कठिन काम करते हैं वे सबसे गरीब हैं तो कहा जाता है कि भगवान की यही मर्जी है; या कि काम न करने वाले अधिक कुशल हैं या ज्यादा मेहनत करते हैं; या कि प्रकृति का नियम ही है कि कुछ लोग कमजोर और कुछ लोग बलवान हों । इसी तरह जब हम पूछते हैं कि हमारे समाज में औरतें मर्दों के अधीन क्यों हैं तो कहा जाता है कि इसका कारण औरतों का ‘प्राकृतिक रूप से’ कमजोर होना है; या कि उनके लिए बच्चों की देखभाल करना या घरेलू काम आदि करना ‘प्राकृतिक’ है ।

मार्क्सवाद हमें बताता है कि यह समाज ‘प्राकृतिक’ या शाश्वत/अपरिवर्तनीय नहीं है । हमेशा से समाज ऐसा नहीं रहा है और इसीलिए हमेशा ऐसा ही नहीं बना रहना चाहिए । समाज और सामाजिक संबंध लोगों द्वारा बनाए हुए हैं और अगर उन्हें लोगों ने बनाया है तो वे इसे बदल भी सकते हैं । इन्हें बदला कैसे जाए? अलग और बेहतर समाज कैसे बनेगा? कुछ लोग (मसलन अन्ना हजारे)कहेंगे कि अगर व्यक्ति कम भ्रष्ट, कम दुष्ट होने का फ़ैसला कर लें तो समाज में सुधार हो सकता है । लेकिन मार्क्सवाद कहता है कि निजी कोशिश ही काफ़ी नहीं है । तो समाज को कैसे बदलें?

पहले कदम के बतौर हमें समाज और सामाजिक संबंधों की प्रकृति को ठीक से समझना होगा । हमें मालिक और मजदूर, पुरुष और स्त्री के आपसी संबंधों को देखना सीखना होगा और इन संबंधों में ऊपर से स्पष्ट लगने वाली चीजों पर सवाल खड़ा करना होगा । समाज ने हमें इन संबंधों के बारे में जो कुछ सिखाया है उसे भुलाना होगा । ऐसे सभी संबंधों के मामले में हमें सतही सच्चाई से आगे बढ़कर गहराई में उतरना होगा ।

आज की क्लास में हम पूँजीपति और मजदूर के आपसी रिश्ते पर बात करेंगे । कोई एक पूँजीपति अच्छा है या बुरा; मजदूरी कम मिलती है या ज्यादा; इन बातों से अलग हम देखेंगे कि पूँजीपति और मजदूर के बीच क्या संबंध है ?

इस संबंध की सही प्रकृति समझना इसलिए कुछ मुश्किल हो जाता है कि सतही तौर पर मजदूर और पूँजीपति दोनों ही पूँजीवादी समाज में बराबर दिखाई पड़ते हैं । इसके बारे में सोचिए: सामंती समाज में सभी जानते कि राजा और उनके रजवाड़ों के हाथ में सारी शक्ति है; किसान और कारीगर अच्छी तरह से जानते थे कि वे पराधीन हैं । दास समाज में गुलाम अच्छी तरह से जानते थे कि उनका मालिक ही उनका स्वामी है । लेकिन आधुनिक पूँजीवादी समाज में कानून की नजर में सबके अधिकार समान हैं । सबको मतदान का समान अधिकार है । मजदूर किसी एक ही मालिक की सेवा करने के लिए मजबूर नहीं है- उसे किसी भी पूँजीपति को अपना श्रम बेचने की आजादी है ।

सबसे आगे बढ़कर पूँजीवादी समाज में लोगों के बीच के सामाजिक संबंध वस्तुओं के बीच सामाजिक संबंध के परदे में छुपे रहते हैं । उदाहरण के लिए ऐसा लगता है कि ‘काम’ ऐसी वस्तु है जिसकी अदला बदली एक दूसरी‘वस्तु’- पैसा से की जा रही है । काम के बदले दाम सही अदला बदली लगती है अगर ‘दाम’, या मजदूरी ठीक ठाक हो ।

काम के बदले दाम

बाजार में धन्‍नासेठ और मजदूर बराबर के हकदार की तरह मिलते हैं: उनमें से एक खरीदार और दूसरा माल अर्थात श्रम शक्ति को बेचने वाले की तरह होते हैं । बाजार में बेचने वाल पूरी आजादी के साथ अपनी श्रम शक्ति बेचता है; खरीदार पैसा देता है और उस श्रम शक्ति के उपयोग का हक हासिल कर लेता है । ऊपरी तौर पर यानी बाजार के स्तर पर यह अदलाबदली जायज है ।

लेकिन अगर हम बाजार के स्तर को छोड़कर गहराई में उतरें और वहाँ पहुँचें जहाँ उत्पादन होता है और मुनाफ़ा पैदा होता है तो दूसरी सच्चाई नजर आती है । आइए मार्क्स के ही शब्दों में इसे समझें:

“इसलिए हम श्रीयुत धन्नासेठ और श्रम शक्ति के मालिक को अपने साथ लेकर शोर शराबे से भरे इस क्षेत्र से, जहाँ हर चीज खुलेआम और सब लोगों की आँखों के सामने होती है, कुछ समय के लिए विदा लेते हैं और उन दोनों के पीछे पीछे उत्पादन के उस गुप्त प्रदेश में चलते हैं, जिसके प्रवेश द्वार पर ही हमें यह लिखा दिखाई देता है: “काम काज के बिना अंदर आना मना है” । यहाँ पर हम न सिर्फ़ यह देखेंगे कि पूँजी किस तरह उत्पादन करती है, बल्कि हम यह भी देखेंगे कि पूँजी का किस तरह उत्पादन किया जाता है । यहाँ आखिर हम मुनाफ़ा कमाने के भेद का पता लगाकर ही छोड़ेंगे ।

जिस क्षेत्र से हम विदा ले रहे हैं, यानी वह क्षेत्र, जिसकी सीमाओं के भीतर श्रम शक्ति का विक्रय और क्रय चलता रहता है, वह सचमुच मनुष्य के मूलभूत अधिकारों का स्वर्ग है । केवल यहीं पर स्वतंत्रता, समानता, संपत्ति और(स्वार्थ) का राज है ।(पूँजी,खंड1,भाग2, अध्याय6)

स्वतंत्रता का राज इसलिए कि मजदूर जिसे चाहे उसे अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए ‘स्वतंत्र’ है । वह बंधुआ मजदूर या भूदास की तरह नहीं होता जो एक खास जमींदार या मालिक की चाकरी के लिए बाध्य होता है । और इसलिए कि पूँजीपति उसकी श्रम शक्ति खरीदने के लिए ‘स्वतंत्र’ होता है ।

समानता का राज इसलिए कि यहाँ हरेक किसी माल का मालिक होता है जिसकी खरीद बिक्री साफ और ‘समान’ ढंग से होती है ।

संपत्ति का राज इसलिए कि हरेक केवल वही चीज बेचता है, जो उसकी अपनी चीज होती है । एक के पास श्रम शक्ति होती है, दूसरे के पास पूँजी होती है;श्रम शक्ति का एक हिस्सा पूँजी के एक हिस्से (अर्थात मजदूरी) से खरीदा जाता है ।

और यहाँ हरेक स्वार्थ से ही संचालित होता है । (यहाँ मार्क्स 19वीं सदी के दार्शनिक बेंथम का नाम लेते हैं जो कहते थे कि हरेक मनुष्य स्वार्थी होता है और स्वार्थ के हिसाब से ही काम करता है और अगर सभी लोग इसी तरह काम करें तो समूचे समाज का कल्याण पूरा हो जाएगा ।)

यदि श्रम और मजदूरी की बीच हुआ यह लेन-देन बिल्‍कुल बराबरी पर हुआ है, तो इसमें से मुनाफा फिर कहां से आया? इस पहेली को सुलझाने के लिए हमें उस पर्दे के पीछे झांक कर देखना होगा जिस पर लिखा है कि “काम काज के बिना अंदर आना मना है”।

“वह जो पहले पैसे का मालिक था अब पूँजीपति के रूप में अकड़ता हुआ आगे आगे चल रहा है; श्रम शक्ति का मालिक उसके मजदूर के रूप में उसके पीछे जा रहा है । एक अपनी शान दिखाता हुआ, दाँत निकाले हुए, ऐसे चल रहा है जैसे आज व्यापार करने पर तुला हुआ हो; दूसरा दबा दबा, हिचकिचाता हुआ जा रहा है, जैसे खुद अपनी खाल बेचने के लिए मंडी में आया हुआ हो और जैसे उसे सिवाय इसके कोई उम्मीद न हो कि अब उसकी खाल उधेड़ी जाएगी ।”( पूँजी,खंड 1, भाग 2, अध्याय 6)

श्रम नहीं, तो मुनाफ़ा नहीं

जैसा कि ऊपर के कार्टून में आपने देखा कि मजदूर के बिना पूँजीपति को मुनाफ़ा नहीं हो सकता । श्रम के बगैर पूँजी का निर्माण नहीं हो सकता । श्रम से ही अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है । इसका मतलब यह कि मजदूर को जितनी मजदूरी दी जाती है उससे अधिक वह हमेशा ही पैदा करता है । जिसकी मजदूरी नहीं दी जाती उसी मेहनत के उत्पादन को हड़प लेना पूँजीवादी शोषण का सार है । मजदूर को चाहे जितनी अधिक मजदूरी मिले उसका यह शोषण होता ही है ।

आइए, इसे और अच्छी तरह से समझते हैं ।

श्रम शक्ति का मूल्य क्या है? इसे वह राशि समझिए जो मजदूर को बनाए रखने के लिए जरूरी होती है । दूसरे दिन भी काम पर लौट कर आने के लिए मजदूर(नी) को आराम, भोजन, घर, ईंधन आदि की जरूरत होती है । जब मजदूर मर जाए तो उसकी जगह लेने के लिए मजदूरों की अगली पीढ़ी को पैदा और बड़ा होना होता है । इसलिए श्रम शक्ति का मूल्य वही होता है जो इन जरूरतों को पूरा करे । समाज के विकास और वर्ग संघर्ष के स्तर के अनुसार इन जरूरी चीजों में फ़र्क हो सकता है । अमेरिका या ब्रिटेन में मजदूरी भारत से ज्यादा हो सकती है । कभी कभी यह मजदूरी मजदूर और उसके परिवार के भरण पोषण के लिए जरूरी न्यूनतम राशि से भी कम हो जा सकती है । लेकिन श्रम शक्ति का मूल्य हमेशा वही रहेगा जो मजदूर और उसके परिवार के भरण पोषण के लिए जरूरी हो । लेकिन मजदूर हमेशा ही उसके भरण पोषण के लिए जितना जरूरी होता है उससे ज्यादा पैदा करता है ।

किसी एक कार्यदिवस में उसके एक हिस्से में की गई मेहनत से ही मजदूर के भरण पोषण की लागत निकल आती है । बाकी समय में की गई मेहनत की मजदूरी नहीं मिलती । इसी अतिरिक्त मेहनत से होने वाला उत्पादन मुफ़्त होता है और पूँजीपति के मुनाफ़े का यही राज़ है ।

पूँजीपति हमेशा ही इस मुफ़्त के काम को बढ़ाना चाहता है । किन तरीकों से ऐसा होता है?

- मजदूर और उसके परिवार के भरण पोषण की लागत को कम करके

- पारिवारिक व्यवस्था के जरिए जिसमें भरण पोषण की जिम्मेदारी को औरतें मुफ़्त निभाती हैं (अर्थात घर का काम, बच्चों और बूढ़ों/बीमारों की देखभाल पूँजी की सेवा में मुफ़्त किया गया काम है)

- कार्यदिवस को यथासंभव लंबा करके, या उतने ही घण्‍टों में खाने आदि का समय घटा कर और मजदूरों से ज्‍यादा काम करवा कर।

इसी तरह मजदूर भी इस मुफ़्त काम की अवधि को कम करने के लिए लड़ाई लड़ते हैं:

- अधिक मजदूरी की माँग करके; यह कहकर कि शिक्षा, भोजन, ईंधन,स्वास्थ्य, परिवहन, टीए/डीए, पेंशन आदि ‘जरुरी’ चीजों में शामिल हैं(मालिक इन सबके लिए मजदूरी में भुगतान नहीं करता: इनका भुगतान समूचे शासक वर्ग यानी सरकार द्वारा हो सकता है ।) इसीलिए गरीबी की रेखा को नीचे रखने के खिलाफ़ लड़ाई होती है; न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने और उसे हासिल करने के वास्ते संघर्ष होता है;कार्यदिवस/सप्ताह/माह/जीवन को घटाने की माँग होती है; राशन, शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार का दावा किया जाता है । ये सभी संघर्ष मुफ़्त काम की सीमा कम करने के संघर्ष का हिस्सा हैं ।

पूंजीपतियों, या मजदूरों द्वारा किये जाने वाले ये सारे कार्यकलाप हम अपने जीवन में रोज देखते हैं। हर मजदूर पूंजी‍पतियों की चालबाजियों को भली-भांति समझ लेते हैं और बेहतर मजदूरी, काम की परिस्थितियों में सुधार व अपने जीवन के लिये संघर्ष करना भी वे जानते हैं। मार्क्‍स ने हमें बताया कि रोजमर्रा चलते रहने वाले इस संघर्ष की वास्‍तविक वजह क्‍या है और कैसे उस बुनियाद को ही बदल कर एक नये समाज की नींव रखी जा सकती है। अपने शरीर के बारे में हम अच्‍छी तरह से जानते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि इसके अंदर के अंग कैसे काम करते हैं। जैसे शरीर को जानने के लिए डॉक्‍टर उसकी चीर फाड़ करते है, उसी तरह से मार्क्‍स ने पूंजीवादी व्‍यवस्‍था की चीरफाड़ कर उसके भीतर की सच्‍चाई और कार्यप्रणाली का खुलासा हमारे सामने कर दिया।

सर्वहारा और उजरती गुलामी

आप पूछ सकते हैं कि मजदूर को ऊपर बताये शोषण का शिकार क्‍यों बनना पड़ता है? इसका कारण मार्क्‍स बताते हैं कि – पूंजीपति (और जमीन्‍दार) उत्‍पादन के सभी साधनों (अर्थात् आजीविका के सभी साधन जैसे जमीन, फैक्‍ट्री आदि) के मालिक होते हैं, और मजदूरों के पास केवल उनका श्रम होता है जिसे वे बेचते हैं।

हमने ऊपर देखा कि पूंजीवादी समाज में मजदूर 'आजाद' होता है, वह बन्‍धुआ मजदूर या गुलाम नहीं होता। लेकिन मजदूर को आजाद बताने के कई और मायने भी हैं। उत्‍पादन के सभी तरह से साधनों से रहित (आजाद) मजदूरों को पूंजीवाद कैसे बनाता है – जिनके पास कोई सम्‍पत्ति, जमीन या उत्‍पादन के औजार नहीं होते ? ये मजदूर तो काम पाने के लिए, और अपना जीवन चलाने के लिए, पूरी तरह से पूंजीपतियों की कृपा पर निर्भर हैं। किसानों से उनकी जमीन छीन कर और मजदूरों से उनके औजार और मशीनें छीन कर ही पूंजीवाद ऐसा करता है। इसकी प्रक्रिया में एक सम्‍पूर्ण सर्वहारा मजदूर की रचना पूंजीवाद करता है, जिससे श्रम के अलावा और सभी कुछ छीन लिया जाता है। अपनी जमीन होने पर किसान उस पर फसल उगा कर और औजार होने पर एक कारीगर, उदाहरण के लिए एक मोची अपने औजारों से जूते बना कर, उन्‍हें बाजार में बेच सकता है। जब जमीन या औजार उनसे छिन जाते हैं तो उनके द्वारा बनायी गयी वस्‍तु उन्‍ही के नियंत्रण में नहीं रहती है। मजदूर जो भी उत्‍पादन करता है उस पर पूंजीपति या जमीन्‍दार का नियन्‍त्रण हो जाता है। मजदूर खुद जो बनाता है वही वस्‍तु उसके सामने एक बाहरी शक्ति – यानि पूंजी - के रूप में खड़ी हो जाती है। 

मार्क्‍स बताते हैं कि कैसे किसान ''अचानक उनके आजीविका के साधन – जमीन- से बल पूर्वक दूर कर दिये जाते हैं'' और उन्‍हें ''मुक्‍त (आजाद) सर्वहारा बना कर श्रम की मण्‍डी में पटक दिया जाता है।'' व़े लिखते हैं कि आजीविका से साधनों पर जबरिया कब्‍जा ''मानवता के इतिहास में खून और आग की स्‍याही से दर्ज है'' (पूंजी, भाग 1, अध्‍याय 26)। भारत में आज हम इसी परिघटना के गवाह बन रहे हैं। उदाहरण के लिए किसानों से बन्‍दूक की नोंक पर जमीनें छीनी जा रही है। इसी तरह का एक और उदारहरण हम दिल्‍ली में भी देख रहे हैं जहां स्‍ट्रीट वेण्‍डरों (रेहड़ी, खोखा, पटरी वालों) के पास अब भी उत्‍पादन के कुछ औजार और उन्‍हें चलाने की कुशलता है। जैसे कि उनकी ठेली, या सिलाई की मशीन, या जूता बनाने वाले औजार वगैरह। खुदरा व्‍यापार में विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट कम्‍पनियों के लिए रास्‍ता साफ करने के लिए इन वेण्‍डरों को बेदखल किया जा रहा है। यदि खोखा-पटरी वाले बेदखल हो जाते हैं तो उनके पास मौजूद स्‍वावलम्‍बी रूप से आजीविका चलाने के छोटे-मोटे साधन भी समाप्‍त हो जायेंगे। फिर अपनी आजीविका के लिए मजदूरी करना ही उनके पास रास्‍ता बचेगा – शायद वालमार्ट, या रिलायंस, जैसी किसी कम्‍पनी में वे सिक्‍योरिटी गार्ड या कम दिहाड़ी की कोई नौकरी करने के लिए वे बाध्‍य होंगे!

अब हम समझ सकते हैं कि "आजाद" मजदूर असल में उतने आजाद नहीं हैं जितना कि उन्‍हें बताया जाता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि उनकी बेड़िया साफ तौर पर दिखायी नहीं देती हैं। पेट की भूख के आगे उनकी आजादी का कोई अर्थ रह नहीं रह जाता। चूंकि पूंजीपति या जमीन्‍दार सभी तरह के रोजगार को नियंत्रित करते हैं, इसलिये मजूदूरों को उनके लिए ही काम करना होग, वरना वे अपना जीवन नहीं चला पायेंगे। वे भले ही गुलाम नहीं है, वे हर हाल में उजरती गुलाम हैं। जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था – "रोम के गुलाम बेड़ियों में जकड़े जाते थे, उजरती गुलाम अपने मालिक के साथ अदृश्‍य धागों से बंधा है। लगातार मालिक बदलते रहने से और रोजगार के अनुबंध के कानूनी दिखावे के कारण सिर्फ लगता भर है कि मजदूर आजाद हैं" (पूंजी, भाग 1, अध्‍याय 23)।

कार्यदिवस और काम के हालात

एक उपभोक्‍ता वस्‍तु के रूप में श्रम शक्ति मजदूरों द्वारा उत्‍पादित वस्‍तुओं (जिन्‍हें बाजार में खरीदा व बेचा जा सकता है) से काफी भिन्‍न तरह की होती है। श्रम शक्ति ही केवल एक ऐसी वस्‍तु है जो स्‍वयं मजदूर के शरीर में होती है। अर्थात् मजदूर से इसको अलग नहीं किया जा सकता। इसका मतलब हो जाता है कि एक आजाद मजदूर अपनी श्रम शक्ति को एक सीमित समय – उदाहरण के लिए 10 धण्‍टों, या 8 धण्‍टे – के लिए पूंजीपति को बेचता है, व़ह पुराने समय के गुलामों की तरह जिनका शरीर व आत्‍मा भी मालिक की होती थी, अपने को नहीं बेचता। लेकिन वास्‍तविकता में उन 10 या 8 घण्‍टों के लिए मजदूर के शरीर पर पूंजीपति का ही नियंत्रण होता है। एक उपभोक्‍ता वस्‍तु के रूप में श्रम शक्ति का इस्‍तेमाल होने के क्रम में मजदूर के शरीर में क्षरण होता है। यह मजदूर ही है जो अपने शरीर के साथ किसी खदान या गटर में घुसता है, या उूंची बिल्डिंग बनाने के लिए बल्लियों पर चढ़ता है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि मजदूरी कितनी ज्‍यादा है, शरीर में जो क्षरण होता है, उसकी जान और अंगों पर जो खतरा आता है, उसका पूरा "दाम" उसे कभी नहीं मिल सकता।

काम के उन घण्‍टों के अलावा भी मजदूरों का जीवन पूंजीपतियों के साथ अभिन्‍न रूप से जुड़ा हुआ है। क्‍योंकि जैसा कि हमने देखा है, मजदूरों का घर-परिवार मात्र एक निजी मामला नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जगह है जहां श्रम शक्ति की रोज भरपाई होती है, जहां मजदूरों की नयी पीढ़ी पुर्नरूत्‍पादित होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूंजी‍पतियों के लिए मजदूर एक मशीन की ही तरह हैं, और वे मजदूरों के उसी तरह मालिक होते हैं जिस तरह एक मशीन के। जैसे मशीन की सफाई और ऑइलिंग की जाती है उसी तरह मजदूर भोजन करते हैं, चाहे घर में खाना खायें या कार्यस्थल पर। मजदूरों के निजी जीवन के अन्‍य पहलुओं की तरह उनका भोजन भी पूंजीवाद के अस्तित्‍व को बनाये रखने के लिए एक महत्‍वपूर्ण कारक है। और पूंजीवाद इस बात की भी गारंटी करता है कि इस भोजन के लिए मजदूर पूरी तरह पूंजीपतियों पर निर्भर रहें। कैसे? क्‍योंकि मजदूर जो भी उत्‍पादन करते हैं, उनके श्रम का फल उनके हाथों से छीन कर पूंजीपतियों के स्‍वामित्‍व और नियंत्रण में दे दिया जाता है।

इसलिए मजदूर को जिन्‍दा रहने के लिए अनिवार्य रूप से काम करना होगा। लेकिन उस मेहनत से वह जिन्‍दा रहने से अधिक और कुछ नहीं कर सकता। और पूंजीपतियों के लिए मुनाफे की गारंटी करके उनका ही श्रम, मजदूर वर्ग पर पूंजीपतियों के नियन्‍त्रण की व्‍यवस्था को बनाये भी रखता है!

मार्क्स ने बताया है कि कानून के जरिए काम के घंटे तय कर दिए जाने के बावजूद पूँजीपति मजदूर के समय में ‘छोटी छोटी चोरी’ करना जारी रखते हैं ।

पूँजी के अध्याय 10 में बताया गया है कि “पूँजी द्वारा मजदूर के खाना खाने या मनोरंजन के समय में ये ‘छोटी छोटी चोरियाँ’” या “समय की ‘छोटी पॉकेटमारी’ या ‘मिनट भर की कटौती’ या जिसे मजदूर ‘खाना खाने के समय काट-कुतर कर घटाना’ कहते हैं, होती रहती हैं ।” ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पूँजीपति के लिए “पल पल मिलाकर ही मुनाफ़े का घड़ा भरता है ।” पाली(शिफ़्ट) की व्यवस्था से रात को भी काम के दिन में बदल दिया जाता है ।

“साफ़ है कि जीवन भर मजदूर मूर्तिमान श्रम शक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता ।--- शिक्षा के लिए, बौद्धिक विकास के लिए, सामाजिक कार्यों तथा सामाजिक आदान प्रदान के लिए, उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के स्वच्छंद विकास के लिए या यहाँ तक कि रविवार को विश्राम करने के लिए-सब खयाली पुलाव है ! यह शरीर की वृद्धि, विकास और समुचित संपोषण के लिए आवश्यक समय को भी हड़प लेती है । ताजा हवा और सूरज की धूप का सेवन करने के लिए जो समय चाहिए, वह उसे भी चुरा लेती है । वह भोजन के समय को लेकर हुज्जत करती है और जहाँ मुमकिन होता है, इस समय को भी उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल कर लेती है, जिससे मजदूर को काम के दौरान उत्पादन के किसी साधन की तरह ही भोजन दिया जाता है, जैसे बायलर को कोयला और मशीन को ग्रीज और तेल दिया जाता है ृ---”।

जो मजदूर बाजार में ‘आजाद’ दिखाई पड़ रहा था उसे उत्पादन की प्रक्रिया में पता चलता है कि वह आजाद नहीं है। “जब तक शोषण के लिए एक भी मांस पेशी, एक भी स्नायु, रक्त की एक भी बूँद उसके शरीर में बाकी है”, तब तक पूँजी रूपी डायन उसे अपने पंजों से मुक्त नहीं होने देगी ।’

मजदूर औजार या मशीन का इस्तेमाल नहीं करता, मशीन ही मजदूरों का इस्तेमाल करती है । मजदूर मशीन का पुछल्ला बन जाते हैं, पहिए के दाँता बन जाते हैं । उनकी (बुनाई, जूता बनाने की) कुशलता नष्ट हो जाती है, वे "मशीन को चलाने वाला औजार" बन कर बार बार एक ही काम करते हैं । इससे उनका दिमाग विकलांग हो जाता है और उनका साहस भ्रष्ट हो जाता है ।

क्रांति की ओर

लेकिन इसी के साथ पूँजीवाद एक नई संभावना को भी जन्म देता है । पूँजीवाद को जरूरत होती है कि मजदूर इकट्ठा काम करें । उदाहरण के लिए मारुति या प्रिकाल जैसी फ़ैक्टरी में सैकड़ों मजदूर एक साथ काम करते हैं । और वहाँ मजदूर सामूहिक रूप से अपनी ताकत को महसूस कर सकते हैं । इस बात को समझ सकते हैं कि सिर्फ़ सामूहिक संघर्ष के जरिए ही वे अपना खून पीने वाली डायन की कोशिशों पर अवरोध लगा सकते हैं । और वर्ग चेतना तथा वर्ग संघर्ष के जन्म के साथ वर्तमान शोषक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और एक नए समाज के निर्माण की संभावना पैदा होती है । यानी क्रांति की संभावना का जन्म होता है ।

पूँजीवाद में एक अंतर्विरोध होता है – इसमें उत्पादन तो सामूहिक होता है लेकिन उस उत्पादन के फलों को निजी रूप से हड़प लिया जाता है । मजदूर सामूहिक रूप से क्रांति के जरिए और एक वर्ग के बतौर, उत्‍पादन के साधनों और अपने श्रम के उत्पाद का सामूहिक ऱूप से मालिक बन सकते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि पूंजीवाद उन्‍ही सामाजिक शक्तियों को जन्‍म देने और आगे बढ़ाने के लिए बाध्‍य है जो आगे चल कर उसे ही नष्‍ट करेंगीं। अर्थात उस मजदूर वर्ग को जो अपने श्रम का मालिक है और "खोने के लिए जिसके पास अपनी बेड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं है"। जैसा कि मार्क्‍स और ऐंगेल्‍स द्वारा लिखित कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र में बताया गया है कि पूंजीपति वर्ग अपनी कब्र खोदने वालों, अर्थात्‍ मजदूर वर्ग, को खुद ही पैदा करता है।

बहरहाल यह क्रांति हीरो लोगों के करने से नहीं होगी । अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों में मजदूर हीरो होता था । और वह शोषण के खिलाफ़ लड़ता था । लेकिन सारे मामले का निपटारा किसी धनवान लड़की से मजदूर हीरो की शादी या शोषक की हत्या/पराजय; अथवा यह पता लगने से हो जाता था कि असल में हीरो किसी भले और धनी पूँजीपति का बेटा है । वास्तविक दुनिया में कोई अकेला हीरो परिवर्तन या क्रांति नहीं कर सकता । इसके लिए एक पार्टी की जरूरत पड़ती है जिसके हित मजदूर वर्ग के ही हित हों- अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत होती है ।

जब हम खुद को ट्रेड यूनियनों में संगठित करते हैं और मजदूरी बढ़ाने या बेहतर काम की परिस्थितियों के लिए संघर्ष करते हैं तब हमें याद रखना होगा कि केवल ट्रेड यूनियन का संघर्ष करने भर से क्रांति हो पाना असंभव है। अपने रोजमर्रा के इन संघर्षों को करने के साथ ही हमारी दृष्टि अपने अंतिम लक्ष्‍य क्रांति पर हमेशा टिकी रहनी चाहिए। क्रांति का मतलब है कि उत्‍पादन के साधनों का नियंत्रण पूंजीपति वर्ग से छीन कर उन पर मजदूर वर्ग का नियंत्रण स्‍थापित किया जाय। जब मजदूरों के पास उत्‍पादन के साधनों का नियंत्रण आ जायेगा, तब वे एक नये समाज को बनाने के लिए आगे बढ़ेंगे। इसके बाद वे डायन की मुनाफ़े की प्यास के लिए असीमित समय तक काम करने के लिए मजबूर नहीं होंगे । बजाय इसके, काम होगा समाज की जरूरतों के लिहाज से;जो काम करते हैं लेकिन संपत्तिहीन हैं तथा जो काम नहीं करके भी सारी संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं, उनके बीच समाज विभाजित नहीं रह जाएगा;और सभी मनुष्यों के पास मनुष्य की तरह बौद्धिक, शारीरिक संभावनाओं को विकसित करने का समय, अवकाश और साधन होगा। जैसा कि एक गीत में बताया गया है "जब मेहनतकश इस दुनिया से अपना हिस्‍सा मांगेंगे, तब एक खेत नहीं, एक देश नहीं, पूरी दुनियां मांगेंगे"।

यह क्रांति दीर्घकालीन संघर्ष के बगैर नहीं हो सकती । यह संघर्ष महज मजदूरी या आर्थिक मुद्दों पर नहीं होता । बजाय इसके मजदूरों और कम्युनिस्ट पार्टी को हरेक किस्म के शोषण और अन्याय के खिलाफ़ लड़ना होगा । उन्हें लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ना होगा- क्योंकि इन अधिकारों से उनके क्रांतिकारी संघर्ष को ताकत मिलती है । हमने देखा ही कि वे राशन के लिए,शिक्षा और स्वास्थ्य के हक के लिए लड़ते हैं । मजदूर वर्गीय चेतना का मतलब है कि वे पुरुष या ऊँची जातियों की श्रेष्ठता में यकीन नहीं करते । उन्हें समाज और अपने घर में महिलाओं की संपूर्ण समानता और मुक्ति के लिए लड़ना होगा । कम्युनिस्टों की कोई जाति नहीं होती और वे जातिवाद तथा सभी तरह के जातीय उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ते हैं ।

आइये, आज के अपने पाठ को कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र की इन पंक्तियों के साथ समाप्‍त करें-

"कम्‍युनिस्‍ट अपने विचारों और उद्देश्‍यों को छिपाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वे खुलेआम ऐलान करते हैं कि उनके लक्ष्‍य पूरी वर्तमान सामाजिक व्‍यवस्‍था को बलपूर्वक उलटने से ही पूरे किये जा सकते हैं। कम्‍युनिस्‍ट क्रांति के भय से शासक वर्ग कांपा करें। सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए सारी दुनिया है। दुनियां के मजदूरो एक हो !"

http://gopalpradhan.blogspot.com बाट साभार 

Sunday, March 13, 2016

सिद्धान्तनिष्ठ एकता कि गद्दारीको यात्रा ! - डा. ऋषिराज बराल


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“एकता” का नाममा हुने गरेका हल्लाबाट कोही पनि भ्रमित हुनुहुँदैन । जसका ओठमै यी शब्दहरू झुन्डिएका छन्, तिनीहरू नै सबैभन्दा बडी फूटपरस्त छन् ।…प्राय गरेर, सबैभन्दा बढी सङ्कीर्णवादी र सबैभन्दा झगडालू र धोकेबाजहरूले नै एकताका लागि बढी जोड दिनेगर्छन् ।…हाम्रो समग्र जीवनमा एकताको हल्ला गर्नेहरूले जति हामीसित झगडा गरे र हामीलाई पीडा दिए, त्यति अरू कसैले दिएनन् ।…यदि  मार्क्सवादीहरूले हेगमा बाकुनिनवादीहरूका फूटपरस्त गतिविधिहरूप्रति सम्झौतावादी रुझान अँगालेका हुन्थ्यौँ भने अन्तर्राष्ट्रिय मजदुर वर्गको आन्दोलनले गम्भीर परिणाम भोग्नुपर्दथ्यो । “एकता” का कारण  ‘अन्तर्राष्ट्रिय ‘छिन्नभिन्न हुनपुगेको हुन्थ्यो ।
(फ्रेड्रिक एङ्गेल्स : अगस्त बेबेललाई चिठी, १८७०)
बडो सुन्दर र मिठासयुक्त छ एकता पदावली । कम्युनिस्टहरू क्रान्तिकारी विचारको केन्द्रीयतामा क्रान्तिकारी समूह, उत्पीडित समुदाय र आम जनतालाई व्यापक रूपमा गोलबन्द गर्नुपर्ने कुरामा जोड दिन्छन् । परन्तु यो पदावली जति मिठासयुक्त छ, त्यत्तिकै विषाक्त पनि छ । एकता पदावलीको प्रयोग गरेर कम्युनिस्ट आन्दोलनलाई विसर्जनको स्थितिमा पुर्याएका घटनासन्दर्भहरू पनि हाम्रा सामु छन् ।
एकताको सुन्दर भाषालाई कसरी विषाक्ततामा फेर्न खोजियो, यसका नाममा कम्युनिस्ट ‘अन्तर्राष्ट्रि’ लाई कता लान खोजियो भन्ने कुरालाई एङ्गेल्सले पीडाजन्य भावमा बडो प्रस्टताका साथ उल्लेख गरेका छन् । एकता र फूटका नाममा लेनिनले लडेको लडाइँको गरिमामय इतिहासकथा पनि हाम्रो सामु छ । नेपालको कम्युनिस्ट आन्दोलसित पनि एकता र फूटको लामो शृङ्खला जोडिएको छ । माओवादी आन्दोलनभित्रको मात्र कुरा गर्दा पनि एकता र फूटको बडो घतलाग्दो परिदृश्य हाम्रा सामु देखापर्छ ।
जो सबैभन्दा भ्रान्तिकारी छ, उही नै सबैभन्दा बढी “क्रान्तिकारीहरूबीच एकता” को हल्ला गरिरहेको छ । विशृङ्खलित तथा विसर्जनोन्मुख माओवादी आन्दोलनलाई एकताबद्ध गरेर क्रान्तिकारी धारमा नयाँ गति र दिशा दिनका लागि एकता हो अथवा खास व्यक्ति वा समूहमा आएको सङ्कट टार्न अनि संसदीय रजनीतिभित्रको ठूलो पार्टी बनाउन एकताको परिपञ्च रचिँदैछ भन्ने प्रश्न नै अहिलेको प्रमुख प्रश्न हो ।
लेखक
लेखक
आजभोलि माओवादी पार्टीहरूबीच एकताको निकै चर्को हल्ला सुनिन थालेको छ । खासगरेर एकीकृत माओवादीको सेरोफेरोमा रहेका माध्यमहरूले पार्टी एकताको सन्दर्भलाई बडो जोडतोडका साथ उठाएको पाइन्छ । एकताका सन्दर्भमा तिथिमिति र घडीपलासमेत जुराइएका समाचारहरू प्रकाशमा आएका छन् ।
क्रान्तिकारीहरूबीच एकता हुने अथवा सही माओवादीहरू एउटै झण्डामुनि आउने कुरामा विमति राख्नुपर्ने कुरा छैन । यो अहिलेको आवश्यकता हो र क्रान्तिप्रति प्रतिबद्धहरू यसका लागि सक्रिय हुनु आवश्यक पनि छ । परन्तु, को हो क्रान्तिकारी र को हो भ्रान्तिकारी प्रश्न यहीँनेर छ ।
जो सबैभन्दा भ्रान्तिकारी छ, उही नै सबैभन्दा बढी “क्रान्तिकारीहरूबीच एकता” को हल्ला गरिरहेको छ । विशृङ्खलित तथा विसर्जनोन्मुख माओवादी आन्दोलनलाई एकताबद्ध गरेर क्रान्तिकारी धारमा नयाँ गति र दिशा दिनका लागि एकता हो अथवा खास व्यक्ति वा समूहमा आएको सङ्कट टार्न अनि संसदीय रजनीतिभित्रको ठूलो पार्टी बनाउन एकताको परिपञ्च रचिँदैछ भन्ने प्रश्न नै अहिलेको प्रमुख प्रश्न हो ।
विचारमा देखापरेको विचलन सङ्गठनमा देखिनु स्वाभाविक हुन्छ । पार्टीबाट क्रान्तिकारी विचारलाई विस्थापन गरेर मात्र पुग्दैनथ्यो । यसका लागि क्रान्तिकारीहरूलाई पनि विस्थापन गर्नु आवश्यक थियो । प्रचण्ड र वाबुरामको वैचारिक विचलनले यही चलनचल्तीको बाटो पछ्यायो । त्यतिबेर माओवादी पार्टीभित्र केन्द्रीय समितिमा क्रान्तिकारी धारको सशक्त उपस्थिति थियो । यसलाई वैचारिक तथा सङ्ख्यात्मक दुवै दृष्टिले निस्तेज नपारी प्रचण्डको मनसुवा पूरा हुने स्थिति थिएन ।
जनयुद्धको नाम सुन्दै भागेका र जनयुद्धकालभरि माओवादीहरूलाई सामाजिक फासिवादी भनेर दस्ताबेजीकरण गर्ने नारायणकाजी श्रेष्ठ अर्थात् प्रकाशको दक्षिणपन्थी विसर्जनवादी गुटलाई पार्टी एकताका नाममा यसै उद्देश्यका साथ प्रवेश गराइएको थियो । त्यसपछि विचलन र स्खलनले गुणात्मकता प्राप्त गर्दैगयो । विचारको तहमा प्रचण्ड बाबुरामकै लाइनमा भए पनि वैचारिक विचलनलाई सङ्गठनात्मक विचलनमा रूपपान्तरण गर्नु आवश्यक थियो र यसका लागि केन्द्रमा बहुमतमा रहेको क्रान्तिकारीहरूलाई सङ्ख्यात्मक रूपमा अल्पमतमा पार्नु अर्थात् आन्दोलनलाई कमजोर पार्नु आवश्यक थियो ।
ध्यान दिनुपर्ने विषय के छ भने चाहे नारायणकाजीसितको एकता होस्, चाहे नवराज सुवेदी, डिलाराम, लीला थापापिसतको एकता, चाहे पार्टीको छानबिन समितिले गौर हत्या काण्डका प्रमुख पात्रमध्ये एक भनेर किटान गरेका रामकुमार शर्मालाई भित्र्याउने कुरा होस्, यी सबै काम किरण कमरेडको संयोजकत्व बनेको एकता संयोजन समितिमार्फत भएका थिए ।
यसै उद्देश्य पूरा गर्न नारायणकाजी समूहलाई भित्र्याइयो । यो माओवादी क्रान्तिकारी आन्दोलनलाई दीर्घकालीन रूपमै ध्वस्त पार्न “ठूलो पार्टी” बनाउने दक्षिणपन्थी संसद्वादी चिन्तनयुक्त योजनाबद्धताको उपज थियो र यो सबै काम प्रचण्डको अगुवाइमा भएको थियो । माओवादी आन्दोलनप्रति गद्दारी गरेका प्रचण्ड अहिले बडो साखुल्ले बनेर एकताको होहल्ला गरिरहेका छन्, ठूलो पार्टी बनाउने भाषण गरिरहेका छन् । किरणहरू अमुक मितिमा आउँदैछन् र विप्लवहरू पनि आउने तयारीमा छन् भनेर दिउँसै राता पारिरहेका छन् । कार्यकर्तालाई मूर्ख बनाइरहेका छन् ।
नारायणकाजीको प्रवेशले विचलन र स्खलनलाई गुणात्मक रूप दिनु स्वाभाविक थियो । हेर्दा एकता थियो, सारमा यो विभाजनको आरम्भ थियो । यो एकता खरिपाटी भेलाको निर्णय र निष्कर्ष विपरीत थियो । मशालकालदेखि जनयुद्धको निरन्तरतासित जोडिएका कार्यकर्ता तथा नेताहरूलाई साक्षी किनारामा राखेर जसरी एकताका नाममा झारपात पतिङ्गर भित्र्याइयो, यो महागल्ती थियो ।
अन्तर्राष्ट्रिय भाइचारा पार्टीहरूले पनि यो एकता प्रक्रिया बेठीक भएको टिप्पणी गरे । यसलाई लिएर हामीले बैठकहरूमा प्रश्न उठायौँ, किरण कमरेडले “एकताका लागि किन सङ्कीर्ण हुने” भन्नुभयो । विशेष केन्द्रीय ब्युरो भनिएको हाम्रो विशेष राज्य समितिका इन्चार्ज विप्लवले पनि बडो फूर्तिसाथ “सबलाई पचाइन्छ” भन्नुभयो । समयले कसले कसलाई पचायो सबै कुरा प्रस्ट भएको छ। 
ध्यान दिनुपर्ने विषय के छ भने चाहे नारायणकाजीसितको एकता होस्, चाहे नवराज सुवेदी, डिलाराम, लीला थापापिसतको एकता, चाहे पार्टीको छानबिन समितिले गौर हत्या काण्डका प्रमुख पात्रमध्ये एक भनेर किटान गरेका रामकुमार शर्मालाई भित्र्याउने कुरा होस्, यी सबै काम किरण कमरेडको संयोजकत्व बनेको एकता संयोजन समितिमार्फत भएका थिए ।
फोहोरमैला भित्र्याउने काम मात्र होइन, हत्यारा र अपराधी सबैलाई फूल माला लगाएर गृह प्रवेश गराउने कामको सहयोद्धा किरण कमरेड पनि हुनुहुन्छ । यस्तैयस्तै प्रवृत्तिले सिङ्गो पार्टीलाई विचलनको अकल्पनीय स्थितिमा पुर्यायो। यो यथार्थप्रति किरण र विप्लव दुवैमा गम्भीरताको अभाव देखिन्छ । एकताका नाममा गरिएका यस्ता विसङ्गत कार्यप्रति दुवैका दस्ताबेज मौन छन् । माओवादी आन्दोलनलाई विसर्जनमा पुर्याउने घटनाक्रमको अंशियार उहाँहरू पनि हुनुहुन्छ ।
एउटै पार्टीभित्र लामो समयसम्म विचार समूह चलन सक्ने स्थिति थिएन र मार्क्सवादले यसो गर्ने अनुमति पनि दिँदैनथ्यो । लामो बहस र छलफल पछि किरण कमरेडको नेतृत्वमा नयाँ पार्टी गठन भयो । त्यसपछि थरीथरीका सन्दर्भहरू सतहमा आए ।
अमुक अमुकले मन्त्री नपाएका कारण पार्टी फुटाए भन्ने खालका टिप्पणीहरू पनि प्रकाशमा आए । जेजस्ता टिप्पणीहरू सतहमा आए पनि प्रचण्डसितको सम्बन्ध विच्छेदको मूल कारण वैचारिक प्रश्न नै थियो
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को खरिपाटी भेला वैचारिक सम्झौतामा टुङ्गिएको थियो र पालुङटार भेला पनि सम्झौताको भेला नै थियो । दुवै सारसङग्रहवादका उपज थिए । सारसङ्ग्रहवाद झन खतरनाक हुन्छ । यो छद्म अवसरवाद नै हो । आवश्यक पर्दा यो दक्षिणपन्थी उद्देश्य पूरा गर्न खुलेर आउँछ, र भयो पनि यस्तै । खासगरेर जनसेना समायोजनामा यो सारै निर्लज्ज र अपराधपूर्ण किसिमले आयो । यस्ता सन्दर्भहरूका कारण माओवादी पार्टीभित्र वैचारिक सङ्घर्ष चल्नु स्वाभाविक थियो ।
एउटै पार्टीभित्र लामो समयसम्म विचार समूह चलन सक्ने स्थिति थिएन र मार्क्सवादले यसो गर्ने अनुमति पनि दिँदैनथ्यो । लामो बहस र छलफल पछि किरण कमरेडको नेतृत्वमा नयाँ पार्टी गठन भयो । त्यसपछि थरीथरीका सन्दर्भहरू सतहमा आए । अमुक अमुकले मन्त्री नपाएका कारण पार्टी फुटाए भन्ने खालका टिप्पणीहरू पनि प्रकाशमा आए । जेजस्ता टिप्पणीहरू सतहमा आए पनि प्रचण्डसितको सम्बन्ध विच्छेदको मूल कारण वैचारिक प्रश्न नै थियो । यसको जग क्रान्तिकारी आशावाद थियो ।
किरण कमरेडको नेतृत्वमा नयाँ पार्टी निर्माणपछि पार्टी जसरी अघि बढ्नु पर्थ्यो, जुन गतिका साथ पार्टीलाई लैजानु पर्थ्यो , त्यसो हुन सकेन । सोलोडोलो रूपमा कार्यदिशाको प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न बने पनि त्यहाँ विभिन्न किसिमका स्वार्थहरू सक्रिय हुनथाले । समयको आवश्यकतालाई ध्यानमा राख्दै सङ्गठनात्मक तथा कार्ययोजनामा क्रमभङ्गताको आवश्यकता थियो । सही मान्छे सही ठाउँमा कसरी स्थापित गर्ने, नयाँ पुस्ताबाट कसरी नेतृत्व विकास गर्ने, क्षमतावानहरूलाई कसरी उचित जिम्मेवारी दिने भन्दा पनि पार्टी अनुभववादी जडता र घिसेपिटे रुटिनबद्धातामा चल्न थाल्यो ।
पार्टी जागिरे शैलीमा चल्न थालेपछि पात्रगत अन्तर्विरोधहरू पनि देखापर्न थाले र यसले विचार भिन्नताको रूप धारणा गर्यो । प्रचण्डसित सम्बन्ध विच्छेद गर्नुअघि जेजस्ता समस्याहरू देखिएका थिए, कमरेड किरणले नेतृत्व गरेको पार्टीमा पनि भिन्नै रूपमा तिनै समस्याहरू देखिनथाले । अन्ततः किरण समूह पनि कमरेड विप्लवको नेतृत्वमा विभाजित भयो ।
अहिले माओवादी आन्दोलनसित जोडिएका झिनामसिना थुप्रै समूहहरू छन् । ‘एक मधेस एक प्रदेश’ को नारा लगाउनेहरूदेखि हयुगो चावेजको गीत गाउँनेहरू समेतले आफूलाई खाँटी क्रान्तिकारी भन्दै अरूलाई अर्तिउपदेश दिएको पाइन्छ । तर पार्टी भन्नलायक समूहहरूका रूपमा भने प्रचण्ड, किरण र विप्लवको नेतृत्वमा रहेका पार्टीहरूलाई मात्र लिन सकिन्छ । अहिले एकताको कुरा गर्दा मूलतः यिनै तीनओटा समूहको सन्दर्भ जोड्नु उचित हुन्छ ।
अहिले एकताको छटपटाहट प्रचण्डमा छ । बाबुराम आफ्नो ‘जिम्मेवारी’ पूरा गरेर अर्थात् ‘प्रभुहरू’ ले दिएको कोर्स पूरा गरेर बाहिरिएका छन् र प्रचण्डलाई ठाडै चुनौती दिइरहेका छन् । यो पीडाले प्रचण्डलाई सारै मर्माहत पारेको छ ।
वैचारिक स्खलनका साथै प्रचण्डले निरन्तर सङ्गठनात्मक स्खलन पनि भोगिरहेका छन् । किरणहरूलाई ठीक पार्न योजनाबद्ध किसिमले पार्टीमा भित्र्याइएका नारायणकाजी श्रेष्ठको दम्स्याइ र धम्क्याइले प्रचण्डको रक्तचाप अनियन्त्रित किसिमले बढेको छ ।
मैले धेरै ठाउँ उल्लेख गरेको छु, पार्टीसित माओवादी नाम जोडिए पनि, वैचारिक पक्ष खासगरेर क्रान्ति र राज्यसत्ता सम्बन्धी गलत धारणाका कारण प्रचण्ड समूह अब कम्युनिस्ट पार्टी रहेन । प्रचण्ड समूहसँग सम्बन्ध विच्छेद गर्दा त्यतिबेर वैचारिक विचलनका १८ ओटा बुँदा अघि सारिएका थिए र अहिले त्यसको सङ्ख्या दुई दर्जनभन्दा बढी पुगेको छ । अब आएर उनले बहुलवाद र संसद्वादलाई अँगालो हालेका छन् ।
त्यसैले जेजस्ता कमीकमजोरी रहे पनि नेपालको अहिलेको सापेक्षता र सन्दर्भमा माओवादी समूहहरू भन्दा कमरेड किरण र कमरेड विप्लवले नेतृत्व गरेको समूहलाई भन्नुपर्छ । विडम्बनाको विषय के छ भने एकताको चर्को होहल्ला यी दुई समूहबीच नभएर कमरेड किरणले नेतृत्व गरेको समूह र संसद्वादको अभ्यासमा इमानदारी र लगनशीलताका साथ लागेको प्रचण्ड समूहसित भइरहेको छ ।
अहिले एकताको छटपटाहट प्रचण्डमा छ । बाबुराम आफ्नो ‘जिम्मेवारी’ पूरा गरेर अर्थात् ‘प्रभुहरू’ ले दिएको कोर्स पूरा गरेर बाहिरिएका छन् र प्रचण्डलाई ठाडै चुनौती दिइरहेका छन् । यो पीडाले प्रचण्डलाई सारै मर्माहत पारेको छ । वैचारिक स्खलनका साथै प्रचण्डले निरन्तर सङ्गठनात्मक स्खलन पनि भोगिरहेका छन् । किरणहरूलाई ठीक पार्न योजनाबद्ध किसिमले पार्टीमा भित्र्याइएका नारायणकाजी श्रेष्ठको दम्स्याइ र धम्क्याइले प्रचण्डको रक्तचाप अनियन्त्रित किसिमले बढेको छ ।
सिंहझैँ गर्जने प्रचण्ड अहिले मुसा देख्दा पनि तर्सने भिजेको बिरालो जस्ता भएका छन् । मधेसवादीहरूसित पनि ठीक्क हुनुपर्ने विदेशी एजेन्सीहरूसित पनि ठीक्क हुनुपर्ने, देउबासित पनि ठीक्क हुनुपर्ने र किरणसित पनि ठीक्क हुनु पर्ने गजबको बेचैनी देखिन्छ यतिबेर प्रचण्डमा । उनमा यस्तै बैचनी ‘भैँसीपूजा काल’ मा पनि देखिएको थियो । यस किसिमको अवस्थाबाट आतङ्कित प्रचण्डले एकताको जाल फ्याल्नु अनौठो कुरा होइन ।
वैचारिक रूपबाट हेर्दा कमरेड किरण र विप्लवले नेतृत्व गरेको समूहबीच एकता हुनुपर्ने थियो । क्रान्तिको लागि एकता गर्ने हो भने हिजो भएका कमीकमजोरीहरूको समीक्षा गर्दै किरण समूह र विप्लव समूहबीच समझदारी बढाउने प्रयास हुनु आवश्यक थियो ।
तर जसले नेपालको माओवादी आन्दोलनलाई प्रतिक्रिवादीहरूको पोल्टामा पुर्यायो, जसले महान् सहिदहरूको रगतसित खेलवाड गर्यो, उसैसित “सिद्धान्तनिष्ठ एकता” को पहल गरिएको छ । यो भन्दा ठूलो प्रहसन अरू हुन सक्तैन ।
अप्ठेरो किरण कमरेडलाई पनि छ । गद्दार हुन पनि मन नलाग्ने र क्रान्तिका लागि जोखिम पनि मोल्न नसक्ने बडो गजबको अकर्मण्यता कमरेड किरणमा देखियो । इच्छाशक्तिको अभाव उहाँको अर्को समस्या रह्यो । अकर्मण्यताको यही ज्वालामा उहाँको इमानदारी, वैचारिक निष्ठा, सौन्दर्यचेत र क्रान्तिकारी इतिहास जल्दैगयो र पार्टीमा खाओवादीहरू, दक्षिणपन्थी अवसरवादीहरू र तन बुद्धनगरमा र मन पेरिस डाँडामा भएकाहरू हाबी हुँदैगए । पार्टीमा एउटा तप्का पेरिस डाँडामा बास बस्न जाने कुरामा विप्लव र उहाँका सहयोगीहरूलाई बाधक देख्थ्यो । त्यसले जसरी हुन्छ कमरेड विप्लवको टोलीको बहिर्गमन चाहन्थ्यो ।
वास्तवमा किरण कमरेडले चाहेको भए विप्लव टोलीलाई रोक्न सक्नुहुन्थ्यो, तर उहाँबाट यो प्रयास भएन । यो उहाँबाट भएको ऐतिहासिक कमजोरी थियो, जसको असर लामो समयसम्म माओवादी आन्दोलनमा देखिइरहनेछ । पार्टीमा रहेका क्रान्तिकारीहरूको रक्षाको सट्टा उल्टै कारबाहीको निरन्तर शृङुखला चलाइयो । क्रान्तिकारीहरू एकपछि अर्को गरेर बहिर्गमित हुँदैगए । यसले किरण कमरेडलाई झन्डैझन्डै सेनाबिनाको कमाण्डरजस्तो बनायो । यस्तो स्थितिले पार्टीभित्रका खाओवादीहरूलाई उत्साहित बनाउनु स्वाभाविक थियो ।
वैचारिक रूपबाट हेर्दा कमरेड किरण र विप्लवले नेतृत्व गरेको समूहबीच एकता हुनुपर्ने थियो । क्रान्तिको लागि एकता गर्ने हो भने हिजो भएका कमीकमजोरीहरूको समीक्षा गर्दै किरण समूह र विप्लव समूहबीच समझदारी बढाउने प्रयास हुनु आवश्यक थियो । तर जसले नेपालको माओवादी आन्दोलनलाई प्रतिक्रिवादीहरूको पोल्टामा पुर्यायो, जसले महान् सहिदहरूको रगतसित खेलवाड गर्यो, उसैसित “सिद्धान्तनिष्ठ एकता” को पहल गरिएको छ । यो भन्दा ठूलो प्रहसन अरू हुन सक्तैन ।
वास्तवमा त्यसभित्रको एउटा समूहले पेरिस डाँडातर्फ खुट्टा उचालिसकेको देखिन्छ । किरणलाई छोडेर भए पनि, लतारेर भए पनि एकता हुन्छ, जस्ता कुराहरू अहिले चर्चाका विषय बनेका छन् । यस परिदृश्यमा अबका दिनमा कमरेड किरणको भूमिका कस्तो हुन्छ र उहाँ कहाँनेरी उभिनुहुन्छ भन्ने कुराले बडो महत्व राख्दछ ।
पेरिस डाँडाले यतिबेर घतलाग्दो विज्ञापन प्रकाशित गरेको छ । प्रचण्डले अमुकअमुकलाई मन्त्री, अमुकअमुकलाई खानपानको बन्दोबस्तको सूचनापाटी टाँसेको कुरा पनि बजारमा चर्चा छ । हितोपदेश मित्रलाभ सुनको बाला लिएर पानीमा उभिएको बूढो बाघको एउटा कथा छ, जसमा सुनको बालाको लोभमा एउटा लोभी बाहुनले ज्यान गुमाएको थियो । प्रचण्डले त्यही कथाको सम्झना गराइरहेका छन् । वास्तवमा प्रचण्ड यस्ता मान्छे हुन्, जो बलियो हुँदा बाघका झै झम्टन्छन् र कमजोर हुँदा बिरालाका झै म्याउँम्याउँ गर्छन् ।
हिजो प्रचण्डसितको फूटको समयमा पनि अझै पर्खौ प्रचण्डको रूपान्तरण भइहाल्छ कि भन्नेहरू थिए । त्यतिबेला शिवराज गौतमले “साथीहरू अझै भ्रममा छन्, यो प्रचण्ड भन्ने मान्छे कहिल्यै रूपान्तरण हुँदैन, ओरालोको पाराकाष्टामा पुगेर टुङ्गिन्छ उनको यात्रा” भन्नुभएको थियो । भयो पनि त्यस्तै ।
वास्तवमा कमरेड अनिल शर्माले भनेझैँ एकताका लागि कि त प्रचण्डको क्रान्तिकारी रूपान्तरण हुनु आवश्यक छ, कि त किरणको आत्मसमर्पण । असाध्यै बदलाभावमा चल्ने पात्र हुन् प्रचण्ड । प्रचण्डले रूपान्तरण भएँ भन्नु भनेको बाघले मासु खान छोडिदिएँ भन्नुजस्तै हो । प्रस्ट छ, एकतापछि पेरिस डाँडामा किरणको स्थिति भनेको करिबकरिब नजरबन्दको स्थिति हो–एक किसिमको निरीहता ।
अहिले एकताको छटपटाहट प्रचण्डलाई छ र पेरिस डाँडा छोडेवापत पश्चातापमा रुमलिएका बादल लगायतकाहरूलाई पनि छ । “गद्दार गद्दार एक हो औँ” लाई मूर्त रूप दिने हो अथवा गतिलो अभिभावक र दरिलो वैचारिक टिमको अभावमा रुमलिएको विप्लव समूहसित एकताको हात बढाउने हो ? गद्दारहरूको सूचीमा नाम लेखाउने हो अथवा क्रान्तिकारी निष्ठाको उदाहरण बनेर इतिहासमा बाँच्ने हो ?
यतिखेर कमरेड किरणका सामु गम्भीर प्रश्नहरू उभिएका छन् । कमरेड किरण नयाँ ऊर्जा र दृढताका साथ अगाडि बढ्न्हुन्छ अथवा पेरिस डाँडामा नजरबन्दमा रमाउनुहुन्छ, यसका लागि पनि समयलाई पर्खिनुपर्ने हुन्छ ।
अब प्रस्टरूपमा माओवादी पार्टीहरू दुई ध्रुवमा विभाजित हुनेछन् । एउटा एमालेले लिएको बाटो र अर्को मालेमाको क्रान्तिकारी बाटो । दक्षिणपन्थी विसर्जनवादीहरू प्रचण्डको नेतृत्वमा एमालेले लिएको बाटोमा ध्रुवीकृत हुनेछन् भने क्रान्तिकारीहरू मालेमाले निर्देशित गरेको बाटोमा केन्द्रीकृत हुनेछन् । गद्दारहरूलाई बलियो बनाउनु भनेको क्रान्तिलाई झन् टाढा पुर्याउनु हो । ।
भारतमा चलिरहेको माओवादी जनयुद्धप्रति गर्व गर्नुको सट्टा माओवादी कमरेडहरूलाई आतङ्कवादी भन्दै सोनियाँ गान्धीलाई चिठी लेखने प्रचण्डसित एकता गर्नु भनेको भाइचारा पार्टीहरूका आखामा पनि गद्दार बन्नु हो । यो सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रियतावादप्रति गद्दारी हो । वास्तवमा “सिद्धान्तको प्रश्नमा मार्क्सवादीहरूले कुनै पनि किसिमको सौदाबाजी गर्दैनन्” भनी मार्क्सले एकताका सन्दर्भमा लासालवादीहरूलाई दिएको जवाफलाई गम्भीरतापूर्वक मनन गर्नु आवश्यक छ ।
माओवादी आन्दोलनलाई विसर्जन हुनबाट रोक्न यतिबेर मार्क्सको उपयुक्त भनाइको सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक प्रतिबद्धताको खाँचो छ । कमरेड किरणले खरिपाटी भेलामा आफूले प्रस्तुत गर्नुभएको दस्ताबेज एकपल्ट फेरि पल्टाउनु आवश्यक छ ।
माओवादी आन्दोलनलाई विसर्जन हुनबाट रोक्न यतिबेर मार्क्सको उपयुक्त भनाइको सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक प्रतिबद्धताको खाँचो छ । कमरेड किरणले खरिपाटी भेलामा आफूले प्रस्तुत गर्नुभएको दस्ताबेज एकपल्ट फेरि पल्टाउनु आवश्यक छ ।
अब प्रचण्डसित सम्बन्ध विच्छेद गरेपछिको कमरेड किरणको अनुभव र महासचिव भएर पार्टी हाँक्दाको कमरेड विप्लवको अनुभवको पनि संश्लेषण हुनु जरुरी छ । पार्टी हाँक्ने कुरा निकै जटिल छ भन्ने कुरा सबैले बुझेको हुनुपर्छ । यहाँ अहम्, आवेग र कुण्ठाभाव होइन, गम्भीरता र जिम्मेवारीबोधको खाँचो छ ।
यो भनेको सही अर्थका क्रान्तिकारीहरूको नयाँ केन्द्र निर्माणको आवश्यकताप्रतिको गम्भीरताबोध हो । यसले मात्र माओवादी झण्डाको रक्षा गर्न र आन्दोलनलाई गति दिन सक्छ । हाम्रो प्रयास यसतर्फ केन्द्रित हुनुपर्छ । किरण कमरेडले यो बाटो रोज्नुहोस् भन्ने हामी चाहन्छौँ।
दक्षिणपन्थी विसर्जनको बाटो रोज्ने हो अथवा माओवादको रातो झण्डाको रक्षाका लागि वर्गसङ्घर्षको भट्टीमा होमिने हो, किरण कमरेड र बुद्धनगरका इमानदार कमरेडहरूका सामु चयन प्रस्ट छ । हेरौँ इतिहास कसरी अघि बढ्छ ।
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http://janapati.com बाट साभार 

Wednesday, March 2, 2016

बहस : समाज रुपान्तरण गर्न माक्र्सवादको सान्दर्भिकता सकिएकै हो त ?

बहस : समाज रुपान्तरण गर्न माक्र्सवादको सान्दर्भिकता सकिएकै हो त ?


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गोकर्ण भट्ट । नेपाली राजनीतिमा यतिखेर एउटा शब्द निकै चर्चित छ– त्यो हो नयाँ । नयाँ संविधान, नयाँ नेपाल । यही नयाँलाई प्रयोग गर्दै बाबुराम भट्टराईले नयाँ शक्ति अभियान घोषणा गरेका छन् । नेपाली समाजको चरित्रमा भएको फेरबदलका आधारमा नयाँ विचार, नयाँ संगठन हुने गरी नयाँ शक्ति आवश्यक छ भन्ने उनको तर्क रहँदै आएको छ ।
नयाँ शक्ति अभियानकर्ताहरुले माक्र्सवादका केही राम्रा कुरा र पूँजिवादका पनि सकारात्मक कुरा समेटेर नेपाली सन्दर्भ अनुसारको विचार निर्माण गर्ने अभिव्यक्ति दिएपछि यसले झन् भ्रम सिर्जना गरेको हो ।
नयाँ शक्तिको गठनमा को को जान्छन् भन्ने बहस एकातिर चलेको छ भने यसको वैचारिक कार्यदिशा के हुने विषयमा गम्भीर चासो व्यक्त भएको छ । खासगरी यसअघि एमाओवादी या अन्य कम्युनिष्ट घटकहरु फुट्दा समूह या कार्यनीतिका हिसाबले फरक भएपनि उनीहरुले समग्र माक्र्सवाद, लेनिनवादलाई परित्याग गरेको घोषणा गरेका थिएनन् । वर्ग समन्वयको सिद्धान्तका आधारमा एमालेलगायतका केही वामपन्थी पार्टीहरुले राजनीतिक कार्यदिशा घोषणा गरेपनि विश्व दृष्टिकोणका तहमा भने माक्र्सवाद र लेनिनवादलाई कसैले पनि निषेध गरेका थिएनन् ।
तर बाबुराम भट्टराईले माक्र्सवादका कतिपय सकारात्मक कुरा रहेकोले तिनलाई समेट्ने तर त्यो नै पूर्ण नभएको आसयको अभिव्यक्ति सार्वजनिक गरेपनि यसले बहसको रुप लिएको हो । विश्व मानव समाजको विकासका क्रममा उदीयमान पूँजिवादले सिर्जना गरेका शोषण असमानताका विरुद्ध जन्मेको माक्र्सवादको सान्दर्भिकतामाथि नै प्रश्न उठाइनुले यो बहस चर्किनु स्वभाविकै हो । नयाँ शक्ति अभियानकर्ताहरुले माक्र्सवादका केही राम्रा कुरा र पूँजिवादका पनि सकारात्मक कुरा समेटेर नेपाली सन्दर्भ अनुसारको विचार निर्माण गर्ने अभिव्यक्ति दिएपछि यसले झन् भ्रम सिर्जना गरेको हो । “बलात्कार गर्नेका राम्रा पक्ष र बलात्कृत हुनेका राम्रा पक्ष समेटेर दुबैको हित हुने व्यवस्था निर्माण कसरी सम्भव छ ?” भन्ने प्रश्न आमरुपमा परिवर्तन र सामाजिक न्यायका पक्षधरहरुले उठाएका छन् ?
हामीले यसै सन्दर्भममा नेपाली समाजका यावत पक्षमा कलम चलाउँदै आएका वामपन्थी लेखकहरुसँग “नेपाली समाजको चरित्रमा फेरबदल गर्न, नेपाली समाजलाई रुपान्तरण गर्न माक्र्सवादको सान्दर्भिकता सकिएकै हो त ? भन्ने प्रश्नमा छलफल गरेका थियौं । प्रस्तुत छः उनीहरुको विचार
आजसम्मको इतिहासमा माक्र्सवाद सन्दर्भहीन भयो र यसको विकल्पमा कुनै अर्को सिद्धान्त छ भनेर काउण्टर गर्ने कुनै पनि दृष्टिकोणको विकास भएको छैन
पूँजिवाद र माक्र्सवाद एउटै भाँडोमा कसरी अट्छन्– हरि रोका, राजनीतिक अर्थशास्त्री
नेपाली समाजको उत्पादन चरित्र र यसले निम्त्याएको शोषण, उत्पीडिन, असमानताको अन्त्य गर्नका लागि माक्र्सवादको सान्दर्भिकता कसरी सकिन्छ रु यसलाई स्पष्ट पार्न हामी माक्र्सवाद किन जन्मियो भन्ने कुरामा पुग्नुपर्छ ।
पूँजिवादी समाजमा, पूँजिवादी विकासको क्रममा जुन खालको समाजको व्यवस्थापन गरियो, जसरी सम्पत्तिमाथिको अधिकार, श्रम, कामलगायतको प्रबन्धन भयो । जसरी उत्पादन र उत्पादन सम्बन्धको निर्माण गरियो, त्यसले सिर्जना गरेको अव्यवस्थापन, असमानता, शोषणको विकल्पमा माक्र्सवादको विकास भएको हो । त्यसैले श्रोत र साधानमा श्रमिक र गैर
हरि रोका
हरि रोका
श्रमिकको समान पहुँच नहुँदासम्म, समाजमा असमानता कायम रहँदा सम्म र उत्पादन सम्बन्धको चरित्र असमान रहँदासम्म माक्र्सवादको औचित्य या सान्दर्भिकता कसरी समाप्त हुन्छ ? त्यसैले आजसम्मको इतिहासमा माक्र्सवाद सन्दर्भहीन भयो र यसको विकल्पमा कुनै अर्को सिद्धान्त छ भनेर काउण्टर गर्ने कुनै पनि दृष्टिकोणको विकास भएको छैन । पूँजिवादी उत्पादन सम्बन्ध र यसले सिर्जना गरेको असमानता र शोषण अन्त्य नहुँदासम्म माक्र्सवादमाथि प्रश्न उठाउन सकिँदैन ।
जहाँसम्म माक्र्सवादका केही राम्रा कुरा र पूँजिवादका केही राम्रा कुरा मिलाउने विषय छ । यो कसरी सम्भव छ ? जसका विरुद्ध, जुन पूँजिवादी समाजको शोषण दमनका विरुद्ध, त्यसले सिर्जना गरेको असमानताका विरुद्ध माक्र्सवादको विकास भयो, अर्थात् जसका विरुद्ध जुन खडा भयो, त्यहीसँग त्यसलाई कसरी मिलाउन सकिन्छ रु यो भनेको विशुद्ध अर्थमा गैर माक्र्सवादी चिन्तन हो ।
यो अर्थमा हेर्दा बाबुराम भट्टराईले अघि सारेको नयाँ शक्ति अभियानको राजनीतिक चरित्र गैर माक्र्सवादी हो ।
जुन पूँजिवादी उदारवादी आर्थिक नीतिले समाजमा अन्याय, र श्रोतमाथि असमानता सिर्जना गरेको छ । त्यससँगै श्रोतमाथि पहुँचका लागि वकालत गर्ने माक्र्सवाद कसरी मिलाउन सकिन्छ ? यस्तो कुरा गर्नेहरु रनभूल्लमा छन् भन्ने स्पष्ट हुन्छ ।
नेपाल समाजको रुपान्तरणका लागि वामपन्थी आन्दोलनको नै एकमात्र बाटो–सोमत घिमिरे, विश्लेषक
नेपाली समाज समतामूलक छैन् । सामाजिक न्याय, श्रोतमाथि पहुँच लगायतका क्षेत्रमा एउटा ठूलो समुदाय न्याय र पहुँचबाट वञ्चित छ । यो अवस्थामा हामीले वामपन्थी आन्दोलनको उपादेयता या सान्दर्भिकता सकिएको निष्कर्शमा पुग्न सक्दैनौं ।
हाम्रो उपरि राजनीतिक संरचनामा कतिपय परिवर्तन भए । तर यी परिवर्तन भए अनुसार नेपाली जनताले प्रत्यक्ष महसुस गर्ने गरी उनीहरुको जीवनमा परिवर्तनको अनुभूति जनताले गर्न पाएनन् । हामीले अवलम्बन गरेको अर्थनीतिले हुनेखाने र नहुनेहरुबीचको खाडल झन् बढाउँदै लगेको छ । एकथरीसँग श्रोत र साधन थुप्रिँदै गएको छ भने अर्कोथरी झन पछि झन सीमान्तीकृत हुँदै गएका छन् ।
हामीले सामन्तवादको अन्त्य भयो भनेर भनेपनि राजनीतिक तहमा मात्रै त्यो भएको हो । राजनीतिक परिवर्तनका आधारमा साधनको पुनरवितरण गर्ने काम नेपालमा कुनै पनि बेला भएन । हाम्रो जग उही असमान आर्थिक सम्बन्धमा नै टिक्दै आयो । हामीले आधारभूत संरचनामा परिवर्तन गर्न नसक्दा यसको जगमा टेकिएको राजनीतिक संरचनामा परिवर्तन हुँदा पनि त्यसको अनुभूति जनताले गर्न पाएनन् ।
सोमत घिमिरे
सोमत घिमिरे
अर्कोतर्फ सामाजिक न्यायका कतिपय विषयहरु हल भएका छैनन् । महिला र पुरुषबीचको न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगारीमा पहुँचजस्ता सामान्य लाग्ने तर सामाजिक न्यायसँग सोझै जोडिएका विषयहरु हल गर्न राज्यव्यवस्था कहिल्यै पनि अगाडि बढेन । राजनीति परिवर्तनपछि बनेका सत्ताहरुले सामाजिक न्यायलाई प्रमुखकताका साथ अघि बढाएनन् ।
त्यसैल यी चारवटा आधार हेर्दा नेपालमा वामपन्थी आन्दोलनको सान्दर्भिकता कसरी सकियो ? समाजको आधारभूति संरचना, श्रोत र साधनमा सबैको समान पहुँचको कुरा फेरबदल गर्न, सामाजिक न्याय स्थापना गर्न वापमन्थी आन्दोलन नै एकमात्र विकल्प हो ।

यद्यपी, वामपन्थी आन्दोलनका आफ्ना सीमा र कमजोरी छन् । नेपालका वापमन्थीहरुले यी सामाजिक न्याय र श्रोतमाथि पहुँचका एजेण्डाहरुलाई उठाउने, जनतामा जाने, जनतालाई गोलबद्ध गर्ने र सिँगो राजनीतिक आन्दोलनलाई समग्र परिवर्तनतर्फ जानेगरी अगाडि बढाउन सकेका छैनन्, त्यो बेग्लै बहसको विषय हो तर यसको अर्थ माक्र्सवाद या वामपन्थी आन्दोलनकै सान्दर्भिकता सकिएको भन्न सकिन्न ।
जहाँसम्म पूँजिवाद र माक्र्सवादका राम्रा कुरा मिलाएर जाने भ्रम छ, यसको कुनै आधार छैन । यो सम्भव नहुने हो । हिजो बहुदलीय जनवादको प्रतिपादन गर्दा मदन भण्डारीले बीचको बाटो लिन खोजेका हुन । तर त्यो सफल नभएको त स्प्ष्ट देखियो नि । त्यो फेल भयो । जुन पूँजिवादी उदारवादी आर्थिक नीतिले समाजमा अन्याय, र श्रोतमाथि असमानता सिर्जना गरेको छ । त्यससँगै श्रोतमाथि पहुँचका लागि वकालत गर्ने माक्र्सवाद कसरी मिलाउन सकिन्छ ? यस्तो कुरा गर्नेहरु रनभूल्लमा छन् भन्ने स्पष्ट हुन्छ ।
पूँजिवादी बाटो समातेर आर्थिक समृद्धि हासिल गर्न खोजेपनि उनीहरु आम जनतालाई न्याय दिन असफल भएका छन् । अहिले सिरिया र मध्यपूर्वमा देखिएको समस्या, लाखौं शरणार्थीहरुको पलायन के पूँजिवादकै परिणाम होइन र ? विश्वमा व्याप्त विभेद, गरिबी पूँजिवादकै परिणाम भएकोले पूँजिवादी बाटो समाज रुपान्तरणको गन्तव्य कदापी हुन सक्दैन ।
पूँजिवादी बाटो समाज रुपान्तरणको गन्तव्य कदापी हुन सक्दैन – झलक सुवेदी, राजनीतिक विश्लेषक
माक्र्सवादको औचित्य र सान्दर्भिकताको बहस विश्वमा लामो सयमदेखि चल्दै आएको छ । बाबुरामजीहरुले रुपान्तरणको सन्दर्भममा यसको असान्दर्भिकताको कुरा गरेका छन् भने अर्काथरीले साम्यवादकै औचित्य देख्दैनन् ।
नेपाली समाजको रुपान्तरणका कुन कुन पक्षमा माक्र्सवाद असान्दर्भिक छ भन्ने कुराको ठोस उत्तर हामी पाउँदैनौं । विश्वमा समाज रुपमान्तरणको कुरा गर्दा कतिपय अवस्थामा पूँजिवादी व्यवस्थाभित्र पनि रुपान्तरण नभएको होइन । विश्वका कतिपय देशहरुले पूँजिवादी बाटो प्रयोग गरेर समाजमा आर्थिक विकास र रुपान्तरण गरेका पनि छन् । कतिपय देशहरुको आर्थिक समृद्धिको कुरा उठाउँदै बाबुरामजीहरुले पूँजिवादबाट पनि रुपान्तरण सम्भव छ भनेर भन्नु भएको छ । अर्कोतर्फ विश्वमा साम्यवादको सफल र असफल प्रयोग पनि भयो । तर यसको आधारमा माक्र्सवादको औचित्यतामाथि प्रश्न उठाउन मिल्दैन ।
विश्वव्यापीरुपमा हेर्दा हामी के पाउँछौं भने पूँजिवादी बाटो अपनाएका एशिया, अफ्रिकाजस्ता देशहरुले आर्थिक समृद्धि हासिल गरेको देखिएपनि त्यहाँ श्रोतमाथिको वितरण, गरिबी, जातीय, क्षेत्रीय, लैंगिक विभेद झनै बढेर गएको छ । त्यहाँका शासनसत्ताहरु आम जनतालाई न्याय दिन सफल भएका छैनन् । पूँजिवादी बाटो समातेर आर्थिक समृद्धि हासिल गर्न खोजेपनि उनीहरु आम जनतालाई न्याय दिन असफल भएका छन् । अहिले सिरिया र मध्यपूर्वमा देखिएको समस्या, लाखौं शरणार्थीहरुको पलायन के पूँजिवादकै परिणाम होइन र ? विश्वमा व्याप्त विभेद, गरिबी पूँजिवादकै परिणाम भएकोले पूँजिवादी बाटो समाज रुपान्तरणको गन्तव्य कदापी हुन सक्दैन ।
झलक सुवेदी
झलक सुवेदी
कतिपय पूँजिवादी देशहरुले समाजवादबाट सिकेर केही फरकपना देखाएका छन् । त्यसअर्थमा पूँजिवाद ठीक भन्नेहरु पनि छन् ।समाजमा नीजि स्वामित्व रहँदासम्म, नीजि स्वामित्वको व्यवस्थाले सिर्जना गर्ने अन्तरविरोध रहँदासम्म साम्यवादको विकल्प छैन । पूँजिवादले समाजमा आर्थिक, जातीय, समुदायका बीचको अन्तरविरोधलाई सामान्य हैन, झनै जटिल बनाउने कुरामा दुईमत छैन । त्यसैले समाजलाई पूँजिवादी बाटोबाट अगाडि बढाएर रुपान्तरण गर्ने, सामाजिक न्याय स्थापना गर्ने र उत्पादनसम्बन्ध न्यायोचित बनाउने कुरा गलत सोचाई हो । बाबुरामजीको यो सोचाइमा सहमत हुन सकिन्न ।
अर्कोतर्फ पूँजिवाद र माक्र्सवादका केही सकारात्मक कुरालाई मिसाउने कुरा झनै हावादारी कुरा हो । माक्र्सवाद र पूँजिवाद दुबै फरक विचार, फरक व्यवस्था र फरक आधार भएका दृष्टिकोण हुन । यी दुबैलाई मिलाउँछु भन्नु पञ्चायत बनाए जस्तै हो । कि माक्र्सवादी बाटो हुन्छ, कि पूँजिवादी बाटो । बरु के चाहिँ भन्न सकिन्छ भने तत्कालै समाजवाद सम्भव छैन, त्यसैले पूँजिवादको विकास गरेर समाजवादमा जाने भन्न सकिन्छ । त्यही सही बाटो पनि हो । तर त्यसका लागि माक्र्सवादी दृष्टिकोणले नै सम्भव हुन्छ । समाजवाद पूँजिवादमाथि नै निर्माण हुने पनि हो । माक्र्सवादले यही भन्छ । तर माक्र्सवादका केही मिलाउने, केही पूँजिवादको मिलाउने कुरा हावा कुरा हो । भ्रमपूर्ण कुरा हो । यसमा सहमत हुन सकिन्न ।

http://www.everestdainik.com बाट साभार 

मार्क्सबाद कहाँ गलत छ ? - नरेन्द्र कुमार छन्त्याल




कुनै मान्छेले परलयको भविष्यवाणि गर्छ, परम-निष्ठा र विश्वास संग उसको प्रतीक्षा गर्छ र जब परलय आउन लाग्छ तब उ खुशीले नाच्न गाउन थाल्छ “देखेउ मैले भनेको थिएँ आउछ र आयो !” परलय आयर उसैको घर खेत समेत किन नजावोस् परलयको परिणाम भन्दा धेरै खुशी उस्लाई आफ्नो कुरा शही हुनेमा हुन्छ | संसारमा कम्युनिस्ट हरु कमजोरिदै छन परिबर्तन हुदै छन् पुंजिबाद तिरै; मान्छेहरु जिन्दगी आफ्नै तरिकाले चलाउन र चल्न थालेका छन् र उनीहरु खुश छन् |

उनीहरु भन्थे यहि हुन्छ | किनकि कम्युनिजम् असम्भब छ | मार्क्सबाद ग़लत छ | म गम्भीरताको साथ शोच्छुकि यो सत्य कि खोज किन उनीहरुलाई यत्ति खुशी लाग्छ ? मार्क्सबाद किन गलत छ ? मार्क्सबादले ऐतिहासिक र तार्किक प्रमाणहरु ले यहि भन्छ मान्छे –मान्छे बीच शोषण, असमानता र अन्याय को जुन व्यवस्थाहरु छन् यि खतम गर्नु पर्छ | यिनीहरुलाई शहीशाषण गर्नेको तरिका स्थापना गरेको छ | उनीहरुलाई गहिरो संग बुझ्ने,ब्याक्ख्या गर्ने र लागुगर्नेको प्रयास हुनु पर्ने किनकि यो इतिहासको माग हो | आज सम्मका मानब समाजको अध्यान हामीहरुलाई यहीं सिकाउछ कि यि बिशालुहरु को शोच या उनीहरुको बिरुद्द लड्नेको मानवीय कोशिस के रहेको छ ? के मानब बिकाश अँध्यारोको लक्ष्यबिहीन् दौड हो या उसको आफ्नै कुनै नियम हो ? यदि नियम छ त के हो ?

मेरो दिमागले बुझ्न सकेन कि मार्क्सबादमा यस्तो के छ जो मान्छेहरु लाइ मन पर्दैन ? या मार्क्सबादले कुन अपराध गराउछ र यसलाई यसलाई मान्न नहुने ? यसलाई मान्ने हरु संग नफरत गर्ने ? शायद मार्क्सबादको अपराध यहि हो अरु नियमहरु को जस्तो नभै यसले शोषण र अन्याय टाडा गर्ने मात्र यौटा सपना, मान्छेहरु लाइ बराबरी भन्ने पाठ र हामीहरु लाइ सम्झाउने कोशिस गर्छ कि हामी ईश्वरीय किर्पाले नभै यि सब ऐतिहासिक,भौतिक र व्यावहारिक कारणले गर्दा हौ, अनि यसको स्वरूप र तरिका हमेशा बदलि रहेका छन् र यिनलाई बदल्न सकिन्छ र बदल्नु पर्छ |

जहाँ सम्म बुझ्न सकिन्छ, केवल दुई किसिमको मान्छे हरु मार्क्सबादको बिरोधमा हुनु पर्छ | एक उनि हरु जस्को खुट्टा जमिनमा टेक्न लार्खराई सकेका, दुइ उनि हरु जो साच्चिकै बिश्वास गर्छन कि शोषण, अन्याय या असमानता ईश्वरीय देनहो र यो जरुरि या अनिबार्य छ | किनकि यिनीहरु हमेशाका हुन्, तेसैले उनीहरु हहमेशा तेस्तै रहन चाहन्छन् | यि स्थितिहरुको परिबर्तन उनीहरु चाहंदैनन् र यस्तो परिबर्तन उनीहरुलाई अप्राकृतिक लाग्छ | यदि उनीहरु यसको शिकार हुन् भने पनि यो उनीहरुको भाग्य हो | भ्रमबाद, यथास्थिति को आफ्नै ब्याक्तिगत भाग्य या नियति मान्नेहरु जति खुस या उदास भयपनी ऐतिहासिक नियति यही हो कि मान्छे बार-बार स्थितिहरु लाई बदल्छ, तोर्छ, बनाउछर राम्रो जिन्दगीको कोशिस गर्छ | एक पटक आफ्नो स्थिति र तेस्लाई बदल्ने तरिका या क्षमता जानेपछि कोहि रहदैन जो पहिले हुन्छ | यो नत्र कम्युनिजम् को हार हो, नत्र पूँजीवादी डैमोक्रेसी को जीत | हुन सक्छ यो कम्युनिजम् र पूँजीवादी डैमोक्रेसी बिचको द्वन्दात्मक अर्कै रुप हो तर कम्युनिजम् छाउने छ किनकि अब संसार पुंजिबादले ठेक्न सक्दैन | महत्वपुर्ण कुरा यो कि यो परिबर्तनको गुणात्मक स्वरुप यो होइन | हामीहरु यो कहिल्यै भूल्नु हुदैन कि क्रान्तिको निर्यात हुदैन | सधै तानातान को व्यवस्था, दमन, भ्रष्टाचार र एकाधिकारी अधिनायकवाद ले जन्म दिन्छ, घर घर टक उनीहरुको कल्याण योजनाहरु पुर्याउने वाला, चमचे र दलालहरु मा बदलि जान्छन् सर्वोच्च सत्ताको नाम लियर सबै मान्छेहरु साना-तिना तानाशाहको रूप लिन्छन | प्रतिरोध र क्रान्तिहरु सधै तल जरा बाट उम्रिनेवला शक्तिहरु हुन् र उम्रिने छन् यस्तै अवस्था र ब्याबस्था रहेसम्म |


http://nayaera.blogspot.com बाट साभार 

नेपालमा समाजवादी क्रान्ति कस्तो ? - रमेश सुनुवार

समाजवादको सान्दर्भिकताबारे बहस
नेपालमा समाजवादी क्रान्ति कस्तो ?
मूल्याङ्कन सम्वाददाता


पुस २४, काठमाडौं

। नेपालमा समाजवादी क्रान्तिको स्वरुप कस्तो भन्ने विषयमा राजधानीमा बहस भएको छ । ‘नेपालमा समाजवाद : कस्तो र कसरी ?’ शीर्षकमा आइतबार पद्मकन्या क्याम्पसको डेनिस हलमा भएको उक्त बहसमा नेपालका विभिन्न कम्युनिस्ट घटकसँग सम्बद्ध नेता र बुद्धिजीवीहरुले आ–आफ्नो विचार व्यक्त गरे ।
माक्र्सवाद अध्ययन अनुसन्धान प्रतिष्ठानले आयोजना गरेको बहसमा आयोजकका तर्फबाट रमेश सुनुवारले कार्यपत्र प्रस्तुत गरेका थिए । कार्यपत्रमाथि नेकपा एमालेका नेता डा. विजय पौडेल, एकीकृत नेकपा माओवादीका नेता आहुति, नयाँ शक्ति अभियानका नेता देवेन्द्र पौडेल, नेकपा माओवादीका नेता धर्मेन्द्र बास्तोला र विश्लेषक केशव दाहालले बोलेका थिए ।
प्रतिष्ठानले समाजवादी क्रान्ति सम्बन्धी यस्ता अन्तक्र्रियात्मक बहसहरु देशभरि गर्ने योजना बनाएको जनाएको छ ।
यस्तो छ रमेश सुनुवारको कार्यपत्र :



नेपाली क्रान्तिको मोडल

नेपाल विश्वको एउटा भाग हो र नेपाली क्रान्ति विश्वक्रान्तिको एउटा अंश हो । त्यसकारण अब नेपाली क्रान्तिको कार्यक्रम वर्तमान विश्वको परिवेश र नेपालको परिवेश दुवैलाई विचार गरेर मात्र बन्नसक्दछ । त्यसका लागि सर्वप्रथम वर्तमान विश्वको परिवेश र नेपालको परिवेशलाई अवगत गर्नु आवश्यक छ ।

१. वर्तमान विश्वको परिवेश

आज हामी एउटा नयाँ संसारमा छौ । माक्र्सवादको उदय भएको करिब १७५ वर्ष पुगिसकेको छ । यसबीचमा दुनियाँमा धेरै परिवर्तन भइसकेका छन् । ती परिवर्तनमध्ये प्रमुख यस प्रकार छन्– क) उत्पादक शक्तिमा परिवर्तन, ख) पुँजीवादको स्वरुपमा परिवर्तन, ग) समाजवादको पुरानो प्रारुपको अन्त्य र घ) संघर्ष वा क्रान्तिका पुराना विधिहरु प्रभावहीन ।

क) उत्पादक शक्तिमा परिवर्तन

उत्पादक शक्तिको रुपमा विज्ञान–प्रविधिको विकास वर्तमान युगको सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक परिवर्तन सिद्ध भएको छ । यसले मानव समाजको आधारभूत संरचनालाई बदलेको छ । उदाहरणका लागि, मानव श्रम–शक्ति उत्पादन क्षेत्रबाट विस्थापित भएको छ, समाजको वर्गीय संरचना बदलिएको छ, अर्थात सर्वहारा वर्ग र पुँजीपति वर्गको संख्या घटेको छ र मध्यम वर्गको संख्या बढेको छ, र मानव समाज अन्तर्सम्बन्धित भएर विश्वग्रामको सृजना भएको छ । यसैगरी यसबाट मानव सभ्यतामा अभूतपूर्व विकास भएको छ, जुन मात्रात्मक, गुणात्मक तथा गत्यात्मक सबै दृष्टिबाट अद्वितीय छ ।

ख) पुँजीवादको स्वरुपमा परिवर्तन

आफ्नो उदयदेखि सन १९४५ सम्म पुँजीवादले तीन चरण पार गरिसकेको थियो । ती चरण थिए– १) संरक्षणवादी पुँजीवादको चरण, जसलाई व्यापारिक पुँजीवाद भनिन्थ्यो, २) प्रतिस्पर्धी पुँजीवादको चरण, जसलाई औद्योगिक पुँजीवाद भनिन्थ्यो, र ३) एकाधिकारी पुँजीवादको चरण, जसलाई वित्तीय पुँजीवाद भनिन्थ्यो । लेनिनले एकाधिकारी पुँजीवादलाई, जुन साम्राज्यवादको रुपमा प्रकट भएको थियो, पुँजीवादको अन्तिम चरण भनेका थिए । तर त्यसमा पुँजीवादको अन्त्य भएन । सन १९४५ मा दोस्रो विश्वयुद्धको अन्त्य भएपछि पुँजीवादले नयाँ चरणमा, जुन यसको चौथो चरण हो, प्रवेश गरेको छ । यो चरणमा पुँजीवाद एकीकृत पुँजीवाद बनेको छ, जुन अहिले भूमण्डलीकृत पुँजीवादको रुपमा विश्वमा व्याप्त छ । यसको आधार विज्ञान–प्रविधि हो, त्यसकारण यसलाई वैज्ञानिक–प्राविधिक पुँजीवाद भन्नसकिन्छ । बहुराष्ट्रिय तथा पराराष्ट्रिय कम्पनी र निगमको माध्यमबाट एकीकृत पुँजीवादको आगमनपछि सम्पूर्ण पुँजीपति वर्गहरु एकाकार भएका छन् । फलस्वरुप राष्ट्रिय पुँजीपति वर्गको अस्तित्व समाप्त भएको छ । किनभने त्यसले अब भूूमण्डलीकृत पुँजीवादसँग प्रतिस्पर्धा गरेर आफ्नो अस्तित्व कायम राख्नसक्दैन । त्यसकारण ऊ त्यसैमा समाहित भएको छ । एकाधिकारी पुँजीवादको चरणमा राष्ट्रिय पुँजीपति वर्ग साम्राज्यवादबाट उत्पीडित हुन्थ्यो, त्यसकारण ऊ केही हदसम्म क्रान्तिकारी हुन्थ्यो । तर अब ऊ भूमण्डलीकृत पुँजीवादकै अंग भएको हुँदा क्रान्तिकारी छैन, बरु क्रान्तिविरोधी छ । अहिले सम्पूर्ण देशहरुका पुँजीपतिको बहुराष्ट्रिय तथा पराराष्ट्रिय कम्पनीहरु तथा निगमहरुमा शेयर छ, जुन भूमण्डलीकृत अन्तर्राष्ट्रिय पुँजीवादका संस्थाहरु हुन् ।

ग) समाजवादको पुरानो प्रारुपको अन्त्य

सन १९१७ मा सम्पन्न समाजवादी क्रान्तिबाट स्थापित सोभियत संघको समाजवाद सन १९९१ मा पतन भएपछि समाजवादको एउटा प्रारुपको अन्त्य भएको छ । त्यो समाजवादको प्रारुप मानव श्रम–शक्तिमा आधारित, राज्यनियन्त्रित र राज्यको स्वामित्वमा आधारित थियो । त्यो अब अनुभवबाट असान्दर्भिक भइसकेको छ ।

घ) संघर्ष र क्रान्तिका पुराना विधिहरु प्रभावहीन

त्यसैगरी सामाजिक परिवर्तनका लागि प्रयोग गरिएका विद्यमान पुराना विधिहरु पनि अहिले प्रभावहीन सिद्ध भएका छन् । ती विधि हुन– १) सशस्त्र संघर्ष, २) जनआन्दोलन र ३) निर्वाचन ।

विगतमा एकमात्र अचूक साधनको रुपमा मानिएको सशस्त्र संघर्ष अहिले प्रभावहीन भएको छ र कहीँ पनि यसबाट लक्ष्य प्राप्त हुनसकेको छैन । उदाहरणका लागि, भारतको नक्सलबाडी सशस्त्र संघर्ष, पेरुको साइनिङपाथको सशस्त्र संघर्ष र नेपालको माओवादी जनयुद्ध आफ्नो लक्ष्य प्राप्त गर्न सफल भएनन् ।

अहिले विश्वमा जनआन्दोलन पनि सफल भएका छैनन् । उदाहरणका लागि, थाइल्याण्डमा रातोसर्टधारी आन्दोलन, नेपालमा माओवादीद्वारा आह्वान गरिएको आमहड्ताल, आदि ठूलो जनसहभागिताको बाबजुद असफलतामा टुंगिए ।
त्यसैगरी निर्वाचनबाट पनि अहिले विश्वमा सामाजिक परिवर्तनका लागि सफलता प्राप्त भइरहेको छैन । युरोपेली कम्युनिस्टहरु, भारतीय कम्युनिस्टहरु र नेपाली कम्युनिस्टहरु तथा ल्याटिन अमेरिकी वामपन्थीहरुले निर्वाचनको माध्यमबाट केही अांशिक सफलता मात्र प्र्राप्त गरेका छन्, तर मूल लक्ष्य प्राप्त हुनसकेको छैन ।

यसप्रकार आज हामी उपर्युक्त विश्व–परिवेशको सामु उभिएका छौं ।

२. वर्तमान नेपालको परिवेश

नेपाली समाज २००७ सालको परिर्वतनदेखि निरन्तर क्रान्तिको प्रक्रियामा छ । तर त्यसको बाबजुद यहाँ आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवस्थामा आमूल परिवर्तन हुनसकेको छैन । करिब उही समयमा स्वाधीन बनेका दुई छिमेकी देश चीन र भारत आज विश्वमा शक्तिशाली देशको रुपमा स्थापित भइसकेका छन् । तर नेपाल अहिलेसम्म पिछडिएको अवस्थामा रहिरहेको छ । त्यसकारण यहाँ क्रान्ति तथा प्रतिक्रान्तिको क्रम रोकिएको छैन । र, जनताको क्रान्ति जारी छ ।

नेपालको वर्तमान परिवेशलाई यसरी चित्रण गर्न सकिन्छ– क) पुँजीवादी क्रान्तिका लागि भएका प्रयत्न असफल, ख) नयाँ जनवादी क्रान्तिका लागि भएका प्रयत्न असफल, ग) नेपाली समाजको स्वरुप अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी र घ) बाह्य अवस्थामा परिवर्तन ।

क) पुँजीवादी क्रान्तिका लागि भएका प्रयत्न असफल

नेपालमा पुँजीवादी क्रान्तिका लागि तीनवटा प्रयत्न भएका थिए । ती प्रयत्न २००७ सालमा, २०४६ सालमा र २०६२–६३ सालमा भएका थिए । तर केही आंशिक उपलब्धिका बाबजुद तिनीहरु असफल भए । पहिलो प्रयत्नबाट निरंकुश राणा शासनको अन्त्य र प्रजातन्त्रको स्थापना भयो, दोस्रो प्रयत्नबाट निर्दलीय पञ्चायती व्यवस्थाको अन्त्य र बहुदलीय व्यवस्थाको स्थापना भयो र तेस्रो प्रयत्नबाट राजतन्त्रको अन्त्य र गणतन्त्रको स्थापना भयो । यी आंशिक सफलता थिए । तर ती सबै प्रयत्नबाट मूल लक्ष्य प्राप्त हुनसकेनन् । त्यो हो– पुँजीवादी व्यवस्थाको स्थापना र विकास ।

ख) नयाँ जनवादी क्रान्तिका लागि भएका प्रयत्न असफल

नेपालमा नयाँ जनवादी क्रान्तिका लागि पनि तीन वटा प्रयत्न भएका थिए । ती प्रयत्नमध्ये पहिलोे नेपाल कम्युनिस्ट पार्टीको नेतृत्वमा नयाँ जनवादी कार्यक्रम अगाडि सारेर भएको थियो, दोस्रो नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एमालेको नेतृत्वमा बहुदलीय जनवादको कार्यक्रम लगाडि सारेर भएको थियो र तेस्रो नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी माओवादीको नेतृत्वमा जनयुद्धको कार्यक्रम अगाडि सारेर भएको थियो । तिनीहरुबाट केही आंशिक उपलब्धि भए, तर मूल लक्ष्य प्राप्त भएन । त्यो हो– नयाँ जनवादी व्यवस्थाको स्थापना र विकास ।

ग) नेपाली समाजको स्वरुप अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी

नेपाली समाजको स्वरुप अहिले पनि अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी नै छ । नेपाली समाजको आरम्भ गोत्र तथा कबिला अवस्थाबाट भएको थियो र सामन्तवादसम्म विकसित भएको थियो । तर आफ्नो विकासको क्रममा यो सामन्तवादबाट पुँजीवादमा नपुगी अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी अवस्थामा रोकिएको छ । नेपाल–अंग्रेज युद्धको परिणामस्वरुप सुगौली सन्धि भएपछि नेपालले अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेश अवस्थामा प्रवेश गरेको हो ।
नेपाल अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी हुनुको कारण के हो भने यहाँ उत्पादक शक्ति अहिले पनि मूलतः जमिन नै रहेको छ र निर्वाहमुखी अर्थतन्त्रको प्रधानता छ, जुन सामन्तवादको आधार हो । केही मात्रामा पुँजीको विकास त भएको छ, तर त्यो प्रमुख उत्पादक शक्ति बनिसकेको छैन । त्यसैगरी यहाँ विदेशी साम्राज्यवादी–विस्तारवादी शक्तिहरुको हस्तक्षेप कायमै छ । आयात तथा पारवहन सुविधा नपाउनु यसको ज्वलन्त उदाहरण हो ।
केही मानिसले नेपाली समाज अब अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी रहेन, पुँजीवादी भइसकेको छ भन्ने दावी गर्दछन् । तर उनीहरुको यो दाबीमा कुनै सत्यता छैन । किनभने तिनै मानिसहरु, जसले यस्तो दावी गर्दछन्, जब सरकारमा पुग्दछन् र कुनै जनपक्षीय काम गर्न सक्दैनन्, तब जनतासामु आएर अलाप–विलाप, हार–गुहार र रोई–कराई गर्दछन्– “ताला–चाबी त अन्तै पो रहेछ, हाम्रो हातमा त केही पनि रहेनछ !”

घ) बाह्य अवस्थामा परिर्वतन

नेपाली समाजको स्वरुप अर्ध–सामन्ती र अर्ध–उपनिवेशी नै रहेको भएता पनि यसको बाह्य अवस्था बदलिएको छ । अन्तर्राष्ट्रिय पुँजीवाद अहिले एकीकृत पुँजीवाद अथवा भूमण्डलीकृत पुँजीवादमा रुपान्तरित भएको छ, जसमा विश्वका सम्पूर्ण पुँजीपति वर्गहरु एकाकार भएका छन् । अब राष्ट्रिय पुँजीपति वर्गको अस्तित्व समाप्त भएको छ ।

३. नेपाली क्रान्तिको कार्यक्रम

यसरी वर्तमान विश्वको परिवेश र नेपालको परिवेश दुुवैैलाई विचार गरिसकेपछि नेपाली क्रान्तिको कार्यक्रमलाई यसप्रकार सूत्रबद्ध गर्न सकिन्छ : क) नेपाली क्रान्तिको लक्ष्य समाजवादलाई बनाउने, ख) उत्पादक शक्तिको रुपमा विज्ञान–प्रविधिलाई मान्ने, ग) संघर्ष वा क्रान्तिको विधि समाजवादको निमार्णलाई बनाउने र, घ) समाजवादको नयाँ प्रारुप प्रस्तुत गर्ने ।

क) नेपाली क्रान्तिको लक्ष्य समाजवादलाई बनाउने

नेपाली क्रान्तिको सिंहावलोकनबाट के स्पष्ट हुन्छ भने नेपालमा पुँजीवादी क्रान्ति हुनसक्दैन । त्यसैगरी नेपाली कम्युनिस्ट आन्दोलनको सिंहावलोकनबाट के स्पष्ट हुन्छ भने यहाँ नयाँ जनवादी क्रान्ति पनि हुनसक्दैन ।
नेपालको आन्तरिक पक्षको आधारमा नेपाली क्रान्तिको लक्ष्य नयाँ जनवाद नै हुन्थ्यो तर यसको बाह्य पक्षमा आएको परिवर्तनले नयाँ जनवादी क्रान्ति सम्भव छैन । कुनै पनि क्रान्तिका लागि आन्तरिक पक्ष मात्र निर्णायक हुँदैन, बाह्य पक्ष पनि त्यत्तिकै महत्वपूर्ण हुन्छ । अन्तर्राष्ट्रिय पुँजीवाद अहिले एकीकृत पुँजीवाद वा भूमण्डलीकृत पुँजीवादमा रुपान्तरित भएको छ, जसमा विश्वका सम्पूर्ण पुँजीपति वर्ग एकाकार भएका छन् । फलस्वरुप राष्ट्रिय पुँजीपति वर्गको अस्तित्व समाप्त भएको छ । त्यसकारण अब राष्ट्रिय पुँजीपति वर्गसँग संयुक्तमोर्चा बनाएर राष्ट्रिय पुँजीपति वर्गलाई मुक्त गर्ने क्रान्ति हुनसक्दैन, जुन नयाँ जनवादी क्रान्ति हो ।

एकाधिकारी पुँजीवादले पुँजीवावादी क्रान्ति हुन दिँदैनथ्यो, त्यसकारण चीनमा पुँजीवादी क्रान्ति हुन सकेन । अब एकीकृत पुँजीवादले नयाँ जनवादी क्रान्ति हुन दिँदैन, त्यसकारण नेपालमा नयाँ जनवादी क्रान्ति हुनसक्दैन । अब नेपाली क्रान्तिको लक्ष्य समाजवाद नै हुन्छ । किनभने वर्तमान भूमण्डलीकृत पुँजीवादको विकल्प भूमण्डलीकृत समाजवाद मात्र हुनसक्दछ । समाजवादभन्दा तलको कार्यक्रमले वर्तमान पुँजीवादको मुकाबिला गर्न सक्दैन । त्यसैगरी वर्तमान नेपाली समाजको पिछडिएको उत्पादक शक्तिलाई समाजवादी कार्यक्रमद्वारा मात्र विकसित गर्न सकिन्छ । अर्थात् सामूहिक, अन्तर्सम्बन्धित र योजनाबद्ध प्रयत्नबाट मात्र पिछडिएको नेपाली अर्थतन्त्र र समाजको प्रगति हुनसक्दछ ।

ख) उत्पादक शक्तिको रुपमा विज्ञान–प्रविधिलाई मान्ने

वर्तमान युगको प्रमुख उत्पादक शक्ति विज्ञान–प्रविधि हो । यसैको आधारमा वर्तमान पुँजीवादले आफूलाई शक्तिशाली बनाएको छ र आफ्नो मृत्युलाई केही पर सार्न सफल भएको छ । त्यसकारण अब विज्ञान–प्रविधिलाई उत्पादक शक्ति नबनाई वर्तमान एकीकृत पुँजीवादलाई पराजित गर्न सम्भव हुँदैन र समाजवादी व्यवस्था पनि सफल हुँदैन । मानव श्रम–शक्तिमा आधारित समाजवादले न पुँजीवादलाई उछिन्न सक्छ न त समाजको आवश्यकता नै पूरा गर्नसक्छ । अब विज्ञान–प्रविधिको वर्तमान उपलब्धिबाट समाजवाद सम्भव देखिएको छ ।

ग) संघर्ष वा क्रान्तिको विधि समाजवादको निर्माणलाई बनाउने

यो विषयका तीन अर्थ छन् : अ) संघर्षका पुुराना विधिहरु : सशस्त्र संघर्ष, जनआन्दोलन र निर्वाचनको स्थानमा समाजवादको निर्माणलाई प्रयोग गर्ने, आ) समाजवादको निर्माण क्रान्तिपूर्व गर्ने र इ) विद्यमान पुरानो व्यवस्थाभित्र रहेर त्यसको विरुद्ध संघर्ष गर्नुको सट्टा त्यसभन्दा बाहिर रहेर संघर्ष गर्ने ।

अ) संघर्षको पुराना विधि : सशस्त्र संघर्ष, जनआन्दोलन र निर्वाचनको स्थानमा समाजवादको निर्माणलाई प्रयोग गर्ने

संघर्ष वा क्रन्तिका पुराना विधिहरु– सशस्त्र संघर्ष, जनआन्दोलन र निर्वाचन– अहिले प्रभावकारी हुनसकेका छैनन् । त्यसकारण अब यी विधिलाई निर्णायक क्षणमा मात्र प्रयोग गर्नुपर्दछ र त्यसभन्दा पहिले पुरानो व्यवस्थाको विरुद्ध नयाँ व्यवस्थाको निर्माण समानान्तर रुपमा गर्नुपर्दछ । फलस्वरुप पुरानो व्यवस्था विस्थापित हुने अवस्था सृजना हुन्छ र क्रान्तिकारी शक्तिहरुलाई सशक्त तथा सुदृढ हुने आधार बन्दछ ।

आ) समाजवादको निर्माण क्रान्तिपूर्व गर्ने

अहिलेसम्म समाजवादको निर्माण कार्य क्रान्ति सम्पन्न भएपछि मात्र गर्ने नीति अवलम्बन गरिएको थियो । तर यसलाई अब क्रान्ति सम्पन्न हुनुभन्दा पहिले नै आरम्भ गर्नुपर्दछ, जसबाट क्रान्तिका लागि सहज अवस्था सृजना हुन्छ । पुरानो व्यवस्थाको समानान्तरमा नयाँ व्यवस्था निर्माण भएपछि पुरानो व्यवस्था कमजोर बन्दै जान्छ र नयाँ व्यवस्था समृद्ध र बलियो बन्दै जान्छ । फलस्वरुप सामाजिक क्रान्तिको माध्यमबाट पुरानो व्यवस्थाको अन्त्य र नयाँ व्यवस्थाको प्रतिष्ठापन हुन्छ ।

इ) विद्यमान पुरानो व्यवस्थाभित्र रहेर त्यसको विरुद्ध संघर्ष गर्नुको सट्टा त्यसभन्दा बाहिर रहेर संघर्ष गर्ने

पहिले पुरानो व्यवस्थाको विरुद्ध संघर्ष गर्दा त्यसभित्र रहेर गर्ने गरिन्थ्यो । किनभने क्रान्तिकारी शक्ति पुरानो व्यवस्थाभित्र हुन्थ्यो । तर अहिले उत्पादक शक्तिको रुपमा विज्ञान–प्रविधिको विकास भएपछि श्रमिकहरु उत्पादन क्षेत्रबाट विस्थापित भएका छन् । त्यसकारण अब पुँजीवादी व्यवस्थाभित्र रहेर त्यसको विरुद्ध संघर्ष गर्न सम्भव छैन । त्यसभन्दा बाहिर रहेर त्यसलाई प्रहार गर्नुपर्दछ ।

यसरी समानान्तर व्यवस्थाको रुपमा समाजवादको निमार्ण गर्न ५ तत्वको आवश्यकता पर्दछ : १) विचारधारा, २) संगठन, ३) अर्थतन्त्र, ४) सेना र ५) राजनीतिक सत्ता । यी साधन निमार्ण गरेर यिनीहरुको आधारमा समाजवादको निर्माण गर्नसकिन्छ ।

४) समाजवादको नयाँ प्रारुप प्रस्तुत गर्ने

नेपाली क्रान्तिको लक्ष्य समाजवाद हो । तर यो समाजवाद पुरानो समाजवाद होइन, नयाँ हुनुपर्दछ । यो नयाँ समाजवादका तीन विशेषता हुनेछन् : क) विज्ञान–प्रविधिमा आधारित समाजवाद, ख) समाजनियन्त्रित समाजवाद र (ग) समाजिक स्वामित्वमा आधारित समाजवाद ।
क) विज्ञान–प्रविधिमा आधारित समाजवाद

विगतमा समाजवाद मानव श्रम–शक्तिमा आधारित थियो, किनभने त्यसबेला मानव श्रम–शक्ति नै प्रमुख उत्पादक शक्ति थियो । तर अहिले त्यसको स्थान विज्ञान–प्रविधिले लिएको छ । त्यसकारण अब समाजवाद पनि विज्ञान–प्रविधिमै आधारित हुनुपर्दछ । मानव श्रम–शक्तिमा आधारित समाजवादले विज्ञान–प्रविधिमा आधारित वर्तमान भूमण्डलीकृत पुँजीवादलाई पराजित गर्नसक्दैन ।

ख) समाजनियन्त्रित समाजवाद

नयाँ समाजवादको अर्को विशेषता समाजनियन्त्रित हुनु हो । विगतको पुरानो समाजवाद राज्यनियन्त्रित थियो र पुँजीवाद पुँजीपति वर्गद्वारा नियन्त्रित हुन्छ । यसको विपरीत, नयाँ समाजवाद समाजको नियन्त्रणमा हुनेछ । जसरी प्रकृतिमा इकोसिस्टमको रुपमा प्राकृतिक तत्वहरुको सम्बन्ध तथा अन्तनिर्भरताबाट सन्तुलन स्थापित भएको हुन्छ, त्यसैगरी समाजमा पनि सामाजिक समूहहरुको सम्बन्ध तथा अन्तर्निभरताबाट सामाजिक नियन्त्रण र सन्तुलन स्थापित हुन्छ ।

नयाँ समाजवादमा समाजका संघटकको रुपमा संगठित सामाजिक समूहहरुको परस्पर सम्बन्ध र निर्भरताबाट सामाजिक नियन्त्रण स्थापित हुन्छ । यसको राजनीतिक व्यवस्था संसदीय व्यवस्था हुँदैन, जुन प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था हो । यो प्रत्यक्ष जनसहभागितामूलक व्यवस्था हुन्छ । यसमा प्रतिनिधिमूलक निकाय संयोजक वा समन्वयकर्ता मात्र हुन्छ र प्रत्यक्ष जनसहभागितामूलक निकाय कार्यकारी हुन्छ ।

ग) सामाजिक स्वामित्वमा आधारित समाजवाद

विगतको समाजवाद राज्यको स्वामित्वमा आधारित थियो र पुँजीवाद निजी स्वामित्वमा आधारित हुन्छ । तर नयाँ समाजवाद समाजको स्वामित्वमा आधारित हुनेछ । समाजको आवश्यकताको आधारमा विभिन्न सामाजिक समूहको निर्माण भएको हुन्छ । उदाहरणका लागि, किसान समूह, मजदुर समूह, व्यापारी समूह आदि । तिनै सामाजिक समूह वास्तविक स्वामित्वका पात्रहरु हुन् । तिनीहरुलाई सम्बन्धित सम्पदा वा विषयको स्वामित्व प्रदान गरेर सामाजिक स्वामित्व स्थापित गर्न सकिन्छ । उदाहरणका लागि, किसान समूहलाई कृषि क्षेत्रको स्वामित्व प्रदान गरेर कृषिमा सामाजिक स्वामित्व स्थापित गर्न सकिन्छ र मजदुर समूहलाई उद्योगको स्वामित्व प्रदान गरेर उद्योगमा सामाजिक स्वामित्व स्थापित गर्नसकिन्छ ।

समाजवादी क्रान्तिद्वारा स्थापित समाजवादबाट निर्माण हुने नयाँ नेपालको तस्बिर हाम्रो अगाडि छ । त्यसलाई हामी मन, वचन र कर्मले स्वागत गरौं !

http://emulyankan.com बाट साभार